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[ ★ जीन निवन्ध रत्नावली भाग २
x टीप -
( मागारधर्मामृत अध्याय - ७ वा – पृ० ५१३ ) श्रावको वीरचर्याहः प्रतिमातापनादिषु ॥ स्यान्नाधिकारी सिद्धान्तरहस्याध्ययनेऽपि च ॥५०॥
टोका-न स्यात्कोऽसौ श्रावकः । किविशिष्टोऽधिकारी योग्य. । क्क वीरेत्यादि - वीरचर्या स्वयं भ्रामया भोजनं, अह प्रतिमा दिनप्रतिमा, आतापनादयस्त्रिकालयोगा- ग्रीष्मे सूर्याभिमुख गिरिशिखरेऽवस्थान, वर्षासु वृक्षमूले, शीतकाले रजन्या चतुष्पथे, इत्येव लक्षणास्त्रय कायक्लेशविशेपा । तथा सिद्धान्तस्य परमागमस्य सूत्ररूपस्य रहस्य च प्रायश्चित्तशास्त्र - स्याध्ययने पाठे श्रावको नाघिकारी स्यादिति संबंध: ॥
अर्थात् - श्रावको को वीरचर्या माने स्वयभ्रामरी वृत्ती से भोजन करना, दिनप्रतिमा, और गर्मी के दिनों में सूर्य के सन्मुख पर्वत के शिखर पर योग धारण करना, वर्षाऋतु मे वृक्ष के नीचे, शीतकाल की रात्रीयो मे नदियों के किनारे अथवा चौहटे में योग धारण करना आदि आतापनादि योग धारण करने का अधिकार नहीं है । तथा इसी प्रकार सिद्धान्त अर्थात् - परमागम के सूत्रों और प्रायश्चित शास्त्रो के अध्ययन करने का भी श्रावको को अधिकार नहीं है ||५०||
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गाथा तक मिथ्या रचली जाती हैं वहां ऐसी कथाओ को गढते कितनी देर लगती है ? ऋषि वाक्यो के सामने ऐसे कथन कदापि प्रमाण नही माने जा सकते। जिन सिद्धांतग्रंथो के बदौलत ही जैन धर्म का गौरव है । उनका पठन पाठन बन्द