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सिद्धान्ताध्ययन पर विचार ]
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करना भी क्या कभी उचित कहा जा सकता है ? यहा तो मूलभूत सम्यग्दर्शन ही तत्वार्थ श्रद्धान से होता है । मजा तो यह है कि- गोम्मटसार, लब्धिसार, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक आदि महाग्रथो के रचयिताओ ने जब कहीं भी यह नही लिखा कि हमारे इस ग्रन्थ को श्रावक पुरुष न पढे तब ये दूसरे निषेध करने वाले कौन होते हैं ? प्रत्युत विद्यावदस्वामी ने अपने अष्टसहस्री ग्रन्थ के अत में कहा है कि मेरे इस ग्रन्थ को पढने का अधिकार कल्याणेच्छु भव्यो के लिए नियत है । इससे अध्ययन का मार्ग कितना विशाल हो जाता है ? चामुण्डरायकृत चारित्रसार शीलसप्तक प्रकरण के 'स्वाध्यायस्तत्वज्ञानस्याध्ययनमध्यापर्ने स्मरण च' वाक्य से स्वाध्याय का लक्षण ही तत्वज्ञान *का पढना प्रढाना और चितवन करना किया है और जो खास"कर ऐसा स्वाध्याय श्रावको के पट्कर्म मे प्रतिपादन किया गया है ॥
X टीप -वसुबदी श्रावकाचार - पू- १२८
गाथा
'दिन पडिमवोरचरिया । तियालजोगेसु णत्थि अहियारो || "सिद्धान्त रहस्सार्णव । अज्झयण देसविरदाणां ॥ ३१२१३ 'दिनप्रति माबीरचर्यात्रिकालयोगेषु नास्त्यधिकार ॥ 'सिद्धान्त रहत्यानामप्यध्ययनं देशविरतानाम् ||३१२||
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अर्थ - दिन मे प्रतिमायोग, वीरचर्यो, त्रिकालयोग और सिद्धान्त रहस्य के अध्ययन, ये ऊपर के बातें करने को देशविरति श्रावक अनधिकारी है ।