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[ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ नोट'- यह. सव' कथन क्षुल्लकादि सच्छूद्रो को लेकर है उन्हीं के लिये तप और सिद्धांत व प्रायश्चित ग्रों के अधिकृत पठन का निषेधा किया प्रतीत होता है जैसाकि वैदिक ग्रयो मे भी पाया जाता है । इसी से दि० मत मे शूद्रो को मुनि दीक्षा का भी निषेध है। इन सब बातों का निवर्गों के लिए निषेध नहीं है।
क्या तत्वज्ञान से सिद्धान्त भिन्न है ? यह तो निश्चित है कि, देशनालन्धि देशविरती तो क्या अवती तकके होती है उसी देशनालब्धिका स्वरूप आचार्य नेमिचन्द्र ने लब्धिसार मे यो कहा है
छवणवपयत्यो देसयरसूरिपदिलाहो जो। देसिदपदस्थधारणलाहो वा तदियलद्धी दु॥क्षा
अर्य-छहद्रव्य और नव पदार्थों का उपदेश करने वाले आचार्य आदि का लाभ यानी उपदेश का मिलना और उन पर उपदेशे हुए पदार्थों के धारण करने ( याद रखने ), की प्राप्ति वह तीसरी देशनालब्धि है।
ग्रन्थाध्ययन का निषेध करना एक ऐसी निर्मूल और अयुक्त बात है कि जिसकी पुष्टि किसी भी परमागमसे नहीं होती है और तो और, खास समवशरण मे ही भगवान की दिव्यध्वनि को तिर्यंच तक श्रवण करते है क्या कोई कह सकता है कि केवली की दिव्यध्वनि मे द्वादश सभा के समक्ष सिद्धातविषयक
卐और इसीलिए वह 'श्र त' कहलाता है "स्वय भगवान ने जिनको अधिकारी समझकर उपदेश सुनाया उन्हें अब कैसे अनधिकारी ठहराया जा सकता है क्या आप भगवान् से भी बड़े हैं ?'