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'सिद्धान्ताध्ययन पर विचार
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उपदेश नही होता है? यदि कहो कि - "मिद्धाताध्ययन का अधिकार हो तो भले हो किंतु श्रावको को अध्यात्म ग्रंथो के पढने का तो अधिकार नही है सो भी ठीक नहीं है। जिनसेन स्वामी ने पंद्रहको व्रतचय क्रिया का वर्णन करते हये पर्व ३८ के कहा है कि -
सूत्रमोपासिकं चास्य स्यावध्येयं गुरोर्मुखात् । विनयेन ततोन्यच्च शास्त्रमध्यात्मगोचरम् ॥११८॥
अर्थ - इसे प्रथम हो गुरुमुख से उपासकाचार पढना चाहिए और फिर विनय पूर्वक अन्य अध्यात्मशास्त्रो का अभ्यास करना चाहिए ।
कुछ भी हो, किसी ग्रथ के अध्ययन की मनाई करना 'विल्कुल निसार है । इसकी अनुपयोगिता का तो खासा प्रमाण यही है कि इस समय इस पर कोई ध्यान नही दिया जा रहा है । केवल अध परम्परा भक्तो को कहने भर की चीज रह गई है । अगर इस अनिष्टपूर्ण आज्ञा का पालन किया जाता तो बडा ही दुर्भाग्य होता - जैन धर्म की इस समय जैसी कुछ अवस्था है यह भी नही रहती । फिर भी सिद्धांत ग्रथो का जैसा पठन पाठन होना चाहिए वैसा नही हो रहा है । प्रत्येक साल इसमें विद्यार्थी पास हो जाते हैं किंतु वे खाली पास ही हैं, उससे सन्मार्ग का महत्व चे द्योतित नही कर सकते । क्योकि जिस उद्देश्य से इनका पठन पाठन होना चाहिए वह प्राय नही है । पूर्वकाल मे इनका अध्यन सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति, कषायो की मंदता और जैन मार्ग का गौरव प्रकट करना इन उद्देश्यो की लेकर होता था अब तो केवल टका पैदा करने और अपता आदर सम्मान होने के अर्थ