________________
१३६ }
[ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
इनका पठन होता है। इसके लिए वे जिन ग्रथो के समीचीन अध्ययन के लिए कम से कम दम पन्द्रह वर्ष चाहिए उन्हें पाच चार वर्ष ही में जैसे-तैसे पढकर प्रमाणपत्र प्राप्त कर लेते हैं और फिर उनका मनन करना भी छोड दिया जाता है फल यह होता है कि पाच सात वर्ष वाद वे नथ अपठित से हो जाते है। ऐसे कितने ही विद्वान कहलाने वाले मिलेंगे जो नाम मात्र की पदवियों को निपटाये हुए गर्वोन्मत्त फिरते हैं। काम पड़ने पर सिद्धात विषयक खास शका का समाधान ये नही कर सकते। निरंतर के अध्ययन विना उनका प्रमाणपत्र विचाग घरा ही रह जाता है, वह केवल दिखाने भर की चीज रह जाती है और उससे कुछ अर्थ नही निकलता । इस तरह के प्रमाणपत्रो से कुछ लाभ भले ही हो किंतु हानि भी पूरी होती है। इन्हे प्राप्त कर मनुष्य अपने को ऐमा कृतकृत्य समझने लगता है कि फिर उस विषय मे कुछ भी प्रयत्न नहीं करता है। नतीजा जिसका यह होता है कि अजुली के जल की तरह वे शन. २ सिद्धात ज्ञान से खाली होते २ आखिर खोखले रह जाते हैं । मो टीक ही है 'अनभ्यामे विप विद्या' होता ही है। जिसकी स्थिति ही निरतर मनन चितवन के ऊपर निर्भर है। उसका प्रमाणपत्र सर्वदा के लिये मानना ही विडंबना पूर्ण है । जहा-जहा इन प्रमाणपत्रो की खटपट नही है वहां बहुत बड़ा लाभ यह है कि मनुष्य की अपनी लियाकत दिखाने को हर समय अपने को तैयार रखना पडता है। इससे मेरा अभिप्राय परीक्षा देकर प्रमाणपत्र लेने की व्यवस्था उठा देने का नती है दीघकाल तक यथेष्ट अध्ययन होना चाहिये यह भाव ह । अस्तु,
अन्त मे हम यह लिखकर कि- 'किस तरह के ग्रन्थ काल शुद्धि आदि न होने पर पढने योग्य हैं।' विराम लेते है।