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३६८ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ इससे पाच सौ गुण एक प्रमाण योजन होता है ।
ऊपर सूर्यादि का माप प्रमाण योजन से बताया है। उत्सेध की अपेक्षा वह माप पाचसौ गुण अधिक होगा। श्लोकवार्तिक मे लिखा है कि"अष्टचत्वारिंशद्योजन कषष्टिभागत्वात् प्रमाणयोजनापेक्षया, सातिरेकविनवतियोजनशतवयप्रमाणत्वादुत्सेधयोजनापेक्षया ।"
[मूल मुद्रित पृ० ३८] अर्थ - सूर्य का विस्तार जो एक योजन के ६१ भागो मे ४८ भाग प्रमाण बताया वह प्रमाण-योजन की अपेक्षा से बताया है। उत्सेध की अपेक्षा तो उसका विस्तार कुछ अधिक ३६३ योजनो (१५७२ कोश) का होता है।
श्वेतावरमत मे प्रमाणयोजन को उत्सेध योजन से चारसी गुणा माना है न कि पाच सौ गुणा । अत. उसके अनुसार लोकप्रकाश नामक श्वेताबर ग्रन्थ मे सूर्य का विस्तार इस प्रकार बताया है
शतानि द्वादशैकोनषष्टि क्रोशास्तथोपरि । चापाद्वात्रिंशत् विहस्ती वयोगुलाश्च साधिका. ॥ ततायतं
सूर्यबिंबमुत्सेधांगुलमानत ॥ अर्थ-१२५६ कोश, ३२ धनुष, ३ हाथ और साधिक ३ अगुल इतना विस्तार उत्सेधागुलकी अपेक्षा से सूर्य बिंब का समझना चाहिये।
ऊपर चन्द्रमा का विस्तार एक योजन के ६१ भागो मे ५६ भाग प्रमाण बता आये है। यह विस्तार पूर्णचद्र का है।