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[ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
ख्यातो वराहमिहिरो नृपते सभाया रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ।
इस प्रसिद्ध श्लोक मे अमरसिंह को विक्रमादित्य की सभा के नवरत्नो मे से एक रत्न बताया है।
ऐसी हालत मे अमरसिंह को धनजय का साला बताना कितना मनघढत है यह पाठक सहज जान सकते हैं ।
(२) जैन भण्डारो मे अमरकोप की प्रतिया मिलने से उसे जैन कोप बताना यह अद्भुत युक्ति है इस तरह तो जैन भण्डारो मे मिलने वाले अनेक वैदिक ग्रन्थ यथा-भर्तृहरि कृत शतकत्रय, कालिदास कृत मेघदूत, रघुवश आदि भी जैन ग्रन्य हो जायेंगे । और वैदिक भण्डारो मे मिलने वाले जैन ग्रन्थ वैदिक हो जायेगे अत यह युक्ति निस्सार ही नही बल्कि काफी आपत्तिजनक है । वास्तविकता यह है कि ग्रन्थ भण्डारो मे विरुद्ध धर्मों के ग्रन्थो का संग्रह उनका परस्पर अध्ययन समीक्षण करने की दृष्टि से किया जाता है।
(३) आशाधर ने तो रुद्रट के काव्यालकार और वाग्भट के अष्टाग हृदय आदि वैदिक ग्रन्थो पर भी टीका बनाई है अत. किसी जैन विद्वान् के द्वारा जनेतर ग्रन्थ पर टीका बनाने से वह ग्रन्थ जैन नही हो जाता । जैसे जिनसेनाचार्य ने कालिदास के मेघदूत को अपने पार्वाभ्युदय मे वेष्टित कर लिया है इससे मेघदूत जैनग्रन्थ नही हो जाता। अमरकोष पर तो पचासो वैदिक विद्वानो ने टीकाये लिखी हैं इससे वह वैदिक ग्रथ नही हो गया। स्वय अनेक वैदिक विद्वानो ने युक्तिपूर्वक अमरकोष को बौद्ध ग्रन्थ सिद्ध किया है जैसा कि पूर्व मे बताया जा चुका है।