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जैन कर्म सिद्धांत ]
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साथ अनादि सबध माने बिना नही बन सकता है | अन्यथा मुक्त जीव के भी उन शरीरो का सम्बन्ध प्रयोग होने लग जावेगा ।
भावार्थ - अमूर्त आत्मा का मूर्त तेजमकार्मण शरीरो के साथ अनादि से सम्बन्ध चला आ रहा है । इसी से तो हमारी आत्मा के साथ ओदारिक शरीर का सम्बन्ध प्रत्यक्ष दिख रहा है । अन्यथा अमूर्त का मूर्त के साथ सम्बन्ध नही हो सकता था । यह ससारी जीव औदारिकादि स्थूल शरीरो के साथ बहुत काल तक रहता है | अकेले सूक्ष्म कार्मण शरीर के साथ तो बहुत ही कम रहता है । वह भी हर विग्रहगति में अधिक-से-अधिक तीन समय मात्र ही ।
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जीव और कर्मोका सम्बन्ध जो अनादिकाल का कहा जाता है वह प्रवाह की अपेक्षा समझना चाहिये । जैसे मनुष्य लोक में मनुष्य जन्मते और मरते हैं परन्तु लोक कभी मनुष्यो से शून्य नही रहा है । यह प्रवाह सदा से चलता आ रहा है । उसी तरह आत्मा मे पुराने कर्म झडते और नये कर्म बघते रहते हैं । आत्मा कभी कर्म शून्य नही रहा है । यह प्रवाह अनादि से चला आ रहा है । जैसे बीजो से वृक्ष पैदा होते है और वृक्षो से बीज पैदा होते हैं यह परम्परा अनादि मे चली आ रही है । न पहले बीज हुआ और न पहिले वृक्ष हुआ । बीज को पहले माने तो वह बिना वृक्ष के कहा से आया और वृक्ष को पहले माने तो वह भी वीज के बिना कैसे पैदा हुआ ? इसलिये दोनो को अनादि मानने से ही वस्तु व्यवस्था वन सकती है । उसी तरह कर्मों के निमित्त से जीव के रागद्वेष भाव पैदा होते है और रागद्वेष से पुन कर्मों का बन्ध होता है यह सिलसिला भी अनादि से चला आ रहा है । जीव के न पहले रागद्वेषादि भाव हुए और न