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[ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
पहले कर्म हए । गगटेप को पहले मानें तो विना कर्मोदय के कैसे हुए ? और कर्मों को पहले माने तो वे भी रागद्वेप के विना जीव के कसे बन्ध गये ? इसलिए यहा भी दोनो ही को अनादि मानने से वस्तु व्यवरथा बन सकेगी। पचास्तिकाय ग्रन्य में कहा है किजो पुण संवारत्यो जीवो
तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्म कम्मादो
होदि गदिसु गदी ॥१२॥ गदिमधिगदस्स देहो देहादो
इन्दियाणी जायते । तेहि दु विसयगहण तत्तो
रागो य दोसो वा ॥१२६।। जायदि जीवस्सेयं भावो
ससारचक्कवालम्मि। इति-जिणवरेहि भणिदो अणादि
णिधणो सणिधणो वा ॥१३०॥ अर्थ-जो जीव ससार मे स्थित है उसके रागद्वेष रूप परिणाम होते है । उन परिणामो से नये कर्म वधते हैं। कर्मो से गतियो मे जन्म लेना पडता है। जन्म लेने से शरीर मिलता है। गरीर मे इन्द्रियाँ होती है। इन्द्रियो से यह जीव विषयो को ग्रहण करता है । विपयो के ग्रहण करने से इष्ट विषयो मे रागभाव व अनिष्ट विषयो मे द्वेषभाव पैदा होता है। इस प्रकार ससार चक्र मे पड़े हुए जीव के भावो से कर्मवन्ध और कर्मवन्धर