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[ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
आत्मा पहले से न होता तो औदारिकादि शरीरो का सम्बन्ध भी आत्मा के नहीं हो सकता था। मतलव कि मूर्त कार्मण शरीर का सूक्ष्म मिश्रण आत्मा के साथ पहले ही से हो रहा था इसी से मूतं औदारिकादि शरीरो का स्थूल मिश्रण भी उस मिश्रण मे मिल जाता है। अगर पहले से सूक्ष्म मिश्रण न हुआ होता तो बाद मे स्थूल मिश्रण भी नही हो सकता था। यह स्थूल मिश्रण मी सूक्ष्म कार्मण शरीर की सिद्धि में एक हेतु हो मकता है। पूर्व मे बिना कार्मण शरीर के सम्बन्ध के अन्य औदारिक शरीरो का सम्बन्ध होना मानने पर मुक्त जीवो के भी पुन शरीर ग्रहण करने का प्रसग आवेगा । इत्यादि कथन भाचार्य विद्यानदि ने तत्वार्थसूत्र के दूसरे अध्याय के "सर्वस्य" मूत्र की व्याख्या करते हुए श्लोकवातिक मे निम्न शब्दो में प्रकट किया है
सर्वस्यानादिसंबंधे चोक्ते तैजसकामणे । शरीरांतरसंबंधस्यान्यथानुपपत्तितः
तैजसकार्मणभ्यामन्यच्छरीरमौदारिकादि, तत्सबधोऽस्मदादीना तावत् सुप्रसिद्ध एव स च तैजसकार्मणाभ्यां सवधोऽनादि सवधमतरेण नोपपद्यते मुक्तस्यापि तत्सवधप्रयोगात् ।'
अर्थ-सभी जीवो के तैजसकार्मण शरीर अनादिकाल से सम्बन्ध रखनेवाले कहे गये है। यदि ऐसा न माना जायेगा तो अमूर्त जीव के अन्य मूर्त और औदारिकादि शरीरो के सम्बन्ध की सगति ही नही बन सकेगी। तैजस और कार्मण शरीर से
जदे औदारिकादि शरीर है। उनका सम्बन्ध हम ससारी जीवो __ के हो रहा है, यह प्रसिद्ध ही है। वह सम्बन्ध तैजसकार्मण के