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जैन कर्म सिद्धात ] पर मूर्त पदार्थों का असर होना भी प्रत्यक्ष है। जब अमूर्त का मूर्त के साथ सम्बन्ध प्रत्यक्ष हमारे सामने है तब परोक्ष सूक्ष्म कार्मण शरीर के साथ आत्मा का सम्बन्ध भी क्यो नही माना जा सकता है ? माना कि जीव और कर्म दोनो विजातीय हैं एक अमूर्त और चेतन है तो दूमरा मूर्त और अचेतन है। इस विजातीय सम्बन्ध से ही तो जीव की अशुद्ध दशा हुई है। ऐसी दशा जीव की कभी किसी की हुई नहीं है, वह अनादिकाल से चली आ रही है । जो दशा अनादि से चली आ रही है। उसमे तर्क नहीं किया जा सकता कि ऐसा विजातीय सम्बन्ध कैसे हुआ। जैसे पाषाण के साथ सुवर्ण ना सयोग जिसे कनकोपल कहते है । सयोग भी तो विजातीय ही है । कहाँ सुवर्ण और कहाँ पाषाण ? पर क्या किया जावे खान मे से निकलते वक्त अनादि से दोनो का ऐसा ही सयोग है। अगर जैन धर्म ऐसा कहता होता कि पहले आत्मा कर्म सयोग से रहित था बाद मे उसके कर्मों का बध हुआ है तब तो ऐसा तर्क करना भी वाजिव हो सकता है कि-अमूर्त का मूर्त के साथ बन्ध कैसे हुआ ? परन्तु जैनधर्म तो जीव और कर्म के सम्बन्ध को अनादि कहता है । वस्तु की जो व्यवस्था विना किसी के की हुई अनादि से चली आ रही है। उसमे तर्क की कोई गु जाइश ही नहीं है। जैसे अनादि से चले आ रहे सुवर्ण और पाषाण के मेल मे कोई तर्क करे कि यह विजातीय सम्बन्ध क्यो हुआ? कैसे हुआ ? ऐसा तर्क नि सार है । उसी तरह जीव और कर्म के सम्बन्ध मे तर्क करना निसार है।
मूर्तिक औदारिकादि शरीरो का सम्बन्ध भी आत्मा के इसी कारण से होता है कि-मूर्त कार्मण शरीर का सम्बन्ध आत्मा के पहिले ही से हो रहा है। अगर कार्मण से सम्बन्धित