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[ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
अलग-अलग शरीर ग्रहण करके कर्मों का फल भोगना पडता है ।
जैसे सीढियो के बिना मकान के ऊपर की छत का उपभोग नही किया जा सकता उसी प्रकार कार्मण शरीर के द्रव्येन्द्रियाँ न होने से अकेले उसके द्वारा भी जीव उपभोग नही
कर सकता ।
प्रश्न अगर ऐसी बात हैं तो कार्मण को जीव का शरीर ही क्यो माना जावे ?
उत्तर उपभोग होना यह हेतु शरीर की सिद्धि के लिये नही है । अन्यथा तैजस भी शरीर नही रहेगा क्योकि वह भी निरुपभोग है । बल्कि तेजस तो कार्मण की तरह आत्म परिस्पदनरूप योग का निमित्त भी नही है तब भी वह शरीर, माना गया है। इससे यही फलितार्थ निकलता है कि- जो विजातीय द्रव्य आत्मा मे मिलकर एकमेक ( एक क्षेत्रावगाही ) हो जाता है उसी की गणना यहाँ काय मे की गई है। इस अपेक्षा कार्मण को भी जीव का काय कहा जा सकता है ।
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प्रश्न जैन शास्त्री मे कर्म वर्गणाओं को पौद्गलिक माना है । उसी से कार्मण शरीर बनता है । इस मूर्त शरीर के साथ आत्मा का बन्ध नही हो सकता है ।
उत्तर : स्थूल ओदारिक शरीर के साथ आत्मा का सम्बन्ध प्रयत्क्ष दिख रहा है तो सूक्ष्म कार्मण शरीर के साथ होना क्यों नहीं माना जावे ? और आत्मा का ज्ञानगुण अमूर्त हैं वह भी मदिरापान से विकृत हो जाता है । तथा ब्राह्मी आदि के सेवन से ज्ञानगुण का विकास होता है । इस तरह अमूर्त ज्ञान