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जैन कर्म सिद्धात ]
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क्या-क्या अच्छा या बुरा फल मिला । चरणानुयोग मे जीवो के लिए वे आचार-विचार बताये गये है जिससे जीव कर्मों से छुटकारा पा सके । करणानुयोग से कर्मों के अनेक भेद-प्रभेद और उनके स्वरूप का विस्तार से वर्णन है । द्रव्यानुयोग मे जीवादि द्रव्यो का वर्णन है । इस प्रकार यह कर्मसिद्धात का विषय जैन साहित्य मे सर्वत्र गर्भित है । यह नही तो जैनधर्म ही नही है और तो क्या मोक्ष मार्ग ही इसी विषय पर आधारित है ।
प्रश्न : आत्मा के साथ बधे हुए कर्मों को भी जैन शास्त्रो मे कार्मण शरीर माना है और यह भी कहा है कि वह सदा संसारी जीवो के साथ रहता है । तो फिर अन्य औदारिकादि शरीरो के धारण करने की जीव को क्या आवश्यकता है ? एव कार्मण शरीर ही काफी है 1
उत्तर सूत्रकार उमास्वामी आचार्य ने "निरुपभोगमत्य" इस सूत्र के द्वारा बताया है कि फार्मेण शरीर उपभोग रहित है और बाधे हुए कर्मों का फल इस जीव को शरीर ग्रहण किये बिना नही मिल सकता है। क्योकि इन्द्रियो के इष्ट-अनिष्ट विषयो की प्राप्ति से ससारी जीवो को सुख-दुख का अनुभव होता है और इन्द्रियों का आधार शरीर है, इससे यह प्रवट होता है कि शरीर होने पर ही जीव को कर्मों का फल मिल सकता है । माना कि कार्मेण भी शरीर है परन्तु उसके अन्य शरीरो की तरह द्रव्येन्द्रिय नही हैं । इसलिये यह जीव उसके द्वारा इन्द्रिय विषय को ग्रहण नहीं कर सकता है । ऐसी हालत मे आत्मा उस कार्मण शरीर के द्वारा तो कर्मों का फल योग नही सकता है इसलिये आत्मा को चार गति के योग्य
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