________________
५७८ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
मूलाचार के ऊपर लिखे उद्धरण मे लिखा है कि रसोई मे से धुआं निकलना बद होने आदि कारणो से मध्याह्नका समय जानकर मुनि गोचरी पर उतरे। इसका मतलब यह है कि १०-१०॥ बजे तक तो वहुत से गृहस्थो के रमोई बनती रहती है, अत वह समय गोचरी का नही हो सकता है। मध्याह्न मे रसोई से सब निमट जाते है, अत धुआं निकलने का भी तब अवसर नहीं रहता है।
आशाधर जी ने अन्य प्रसङ्गो पर भी मुनि का भिक्षाकाल - मध्याह्न मे लिखा है । जैसे सागार धर्मामृत अ० ५ श्लोक १५ मे लिखा है कि-"श्रावक माध्याह्निक देवपूजा किये बाद अतिथि को आहारदान देने के लिए प्रतिक्षा करे।"
इसी तरह सागार धर्मामृत के ६ वें अ० मे श्रावक की दिनचर्या बताते हुए आशाधर जी लिखते है कि
प्रथम ही ब्राह्ममुहूर्त मे उठकर णमोकार मत्र पढे । फिर शौचादि से निवृत्त हो घरके चैत्यालय मे पूजा करे व कृतिकर्म करे फिर कुछ नियम विशेष धारण कर पूजा की सामग्री लेकर गांव के मन्दिर मे जावे। वहां भगवान की पूजा किये बाद आचार्य के पास जाकर जो पहिले घरके चैत्यालय मे नियम विशेष ग्रहण किये थे, उन्हे उनको सुनादे। फिर स्वाध्याय करे । इस प्रकार प्रात:काल सम्बन्धी धार्मिक कृत्यो को करके वह श्रावक अर्थोपार्जन के लिए दूकान आदि स्थानो पर जाकर व्यवसाय करे। फिर भोजन के अर्थ घर पर आवे। उस वक्त मध्याह्न मे मुनि की गोचरी का समय समीप जानकर (श्लोक २१) स्नान कर अपने घरके चैत्यालय मे ही माध्याह्निक देवपूजा करे । तदनन्तर अतिथि को आहार देकर भोजन करे।"