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५५६ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
प्रायः सम्प्रति कोपाय सन्मार्गस्योपदेशनम् । निलून नासिकस्येब विशुद्धादर्शदर्शनम् ॥
अर्थात-इस कलिकाल मे मन्मार्ग का उपदेश देना भी प्राय खतरे से खाली नहीं है लोग उल्टै कुपित हो जाते हैं। किन्तु जब ये अपना स्वभाव नहीं छोड़ते तो धर्म-सेवक भी अपने कर्तव्य (हितैपिता) से क्यो च्युत हो।
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वसुनन्दि ने ११वीं प्रतिमा के जो दोभेद कियेहैं उन दोनो ही भेदो की सज्ञा गुरुदास कृत प्रायश्चित ग्रन्थ मे क्षुल्लक बताते हुए वहाँ उसके लिये लौच करनेका भी उल्लेख कियाहै । पर यह ग्रथ वसुनदि से पूर्व काल का है या उत्तर काल का है ऐसा कोई पूर्ण निश्चय नही है । इस ग्रन्थ का चूलिका भाग नन्दीगुरु की टीका सहित माणिक चन्द ग्रन्थमाला से प्रायश्चित्त संग्रह में प्रकाशित हुआ है। किन्तु इसकी चूलिका सहित शेष अश मय हिन्दी टीका के अन्यत्र से भी छपा है। उसको पढने पर यह ग्रन्थ प्रामाणिक मातम नहीं पड़ता है। जैसे इसके पृष्ठ ५५ मे लिखा है कि-व्याधि आदि कारणो के बिना मुनि वस्त्र ओढ ले तो वह प्रायश्चित का भागी है।" इसका अर्थ हुआ रोगी मुनि वस्त्रं ओढ़ सकता है। पृ० ५६ मे लिखा है-''व्याधि के वश से मुनि जूता पहिन ले तो दोष नहीं है।" इत्यादि । महावीर अतिशय क्षेत्र कमेटी से प्रकाशित आमेर शास्त्र भण्डार की सूची के पृ० १६४ मे इसे श्वेताबर ग्रन्थ बताया है। इसकी नन्दी गुरु कृत टीका है। इसके श्लो० १६१ की टीका में उक्तञ्च गाथा है वह इन्द्रनन्दि कृत छेदपिंड की है। इन्द्रनन्दी का समय विक्रम की १४वी शताब्दि है। अत नन्दीगुरु वि० १४वी शताब्दि के बाद के सिद्ध होते हैं।