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[* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
है। इदानी लगोटधारी मुनियो की एक नई सृष्टि हो रही
ग्रन्थो मे लिखा है कि जो जिस प्रतिमा का धारी है उसे उससे नीचे की प्रतिमाओ का पालना भी अनिवार्य है। प्रसिद्ध आचार्य स्वामी समन्तभद्र के 'रत्नकरण्ड' ग्रन्थ क कौन नही जानता । जैन विद्यालयो के छोटे-छोटे विद्यार्थी तको उसमे परिचित हैं उसमे साफ लिखा है कि
श्रावक पदानि देवैरेकादश देशितानि येषु खलु । स्वगुणाः पूर्वगुणे सह सतिष्ठन्ते क्रमविवृद्धा ॥१३६ ॥
अर्थ-अर्हन्त देव ने श्रावको के ग्यारह पद बतलाये हैं। उनमे अपनी प्रतिमा के गुण पहिले की प्रतिमाओ के गुणो के साथ-साथ अनुक्रम से वढते हुये रहते हैं। __ यही वात निम्न ग्रन्थो मे भी पायी जाती हैअध्यधिवतमारोहेत्पूर्व पूर्ववत स्थित ।
- सोमदेवकृत यशस्तिलक ४४ वा काव्य स्थानेष्वेकादशस्वेवं स्वगुणाः पूर्वसद्गुणः।। संयुक्ताः प्रभवन्त्येते श्रावकाणां यथाक्रमम् ॥ ५४६ ॥
- वामदेवकृत भाव सग्रह . "बतादयो गुणा दर्शनादिभिः पूर्व गुणै सह क्रमप्रवृद्धाः भवंति ।"
- चामुन्डराय कृत चारित्रसार सस्कृत पृष्ठ २ सकल कीति ने "धर्मप्रश्नोत्तर" नामक ग्रन्थ के पृष्ठ ६० मे 'उत्कृष्ट श्रावक कौन कहलाता है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए लिखा है कि