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________________ १६४ ] [ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ अनुसरण किया है । यहाँ नागो का अर्थ सर्प नही है किन्तु नागकुमार देव है । नागकुमारी का वर्णन या तो भवनवासी निकाय के भेदो मे आता है या लवण समुद्र की ऊँची उठी जलराशि को थामने वाले वेलन्धर नागकुमारो मे आता है । इनमे से वेलन्धर नाग कुमारो की संख्या तो लोकानुयोगी ग्रथो मे कही भी साठ हजार देखने मे नही आई है। अलबत्ता भवनवासी नाग कुमारो के सामानिक देवो की मख्या राजवार्तिक मे अवश्य साठ हजार लिखी है । शायद इमौके आधार पर आशाधर ने नागो की सख्या साठ हजार लिखी हो । यहा के अमृत शब्द का अर्थ नित्यमहोद्योत की टीका मे श्रुत सागर ने जल किया है । नमिचन्द्रकृत अभिषेक पाठ मे अमृत की जगह स्पष्ट ही जल शब्द लिखा है अय्युपायं ने अपने अभिषेक पाठ के श्लोक ७ मे अमृत के स्थान मे शक्कर घृत लिखा है । यशस्तिलक की टीका मे प० कैलाशचदजी और प० जिनदास जी ने अमृत का अर्थ दुग्ध किया है । अभयनन्दिकृत लघुस्नपन के इलाक-६ की टीका से अमृत का अर्थ जल किया है । ॐ यहा विचारने की बात है कि - जैन सिद्धांत के अनुसार देव लोक के देवो का मानसिक आहार होता है । वे जल, घृत, शक्कर, दूध का आहार लेते नहीं हैं। तब उनके लिये ऐसा कथन इस श्लोक मे सरक्षणार्थ पाठ है वह हमारी समझ से अशुद्ध मालूम होता है उसकी जगह 'सतर्पणार्थं' पाठ होना चाहिये । टीकाकार भावशर्मा को अशुद्ध पाठ मिला इसीसे उसने खचखाच कर यह सुर्य की समति वैठाने का प्रयास किया है ।
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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