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जैन धर्म में नाग तर्पण ]
- १६३ उभात भोः षष्टिसहस्रनागाः क्षमाकामचार स्फुटवीर्यदर्पाः । 'प्रतप्यतानेन जिनाध्वरोवर्वी सेकात् सुधागर्वमृजामृतेन ॥४८॥
अर्थ-पृथ्वो पर यथेष्ट विवरने से जिनका पराक्रम प्रकट है ऐसे हे साठ हजार नागो । तुम प्रकट होओ। और जिन यज्ञ की भूमि मे तुम्हारे लिए सिंचन किए इस जल से जो कि अमृत-के गर्व को भी खर्व करने वाला है तुम तृप्त होगे। ऐसा कहकर ईशान दिशा मे जलाजलि देवे । इति नागतर्पणं ।
यहाँ यह मालम रहे कि-भूमिशुद्धि के लिए जो अभिमन्त्रित जल के छीटे दिए जाते हैं वह वर्णन तो आशाधर जी ने ऊपर श्लोक ४६ मे अलग ही कर दिया है । यहाँ खास तौर से नागो के लिए ही जल देने का कथन किया है । यही श्लोक आशाधर जी ने प्रतिष्ठासारोद्धार मे भी लिखा है।
इन आशाधर जी से पहिले सोमदेव हुए उन्होने भी यशस्तिलक मे नागतर्पण का कथन इन शब्दो मे किया है
रत्नाम्बुभि कुशकृशानुभिरात्तशुद्धी, मूमौ भुजगमपती नमृतरुपास्य ॥५३३॥
अर्थ पचरत्न रखे हुए जलपात्र के जल से और डाभ की अग्नि से पवित्र की हुई भूमि पर जल से नागेन्द्रो को तृप्त करके ।
___ इन्होने साठ हजार की सख्या नही लिखी है । अन्य ग्रथकारो मे से किसी ने आशाधर का और किसी ने सोमदेव का