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[ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
रूढियो की दल-दल मे फसते नहीं हैं। वे वीतराग देव को छोडकर अन्य काल्पनिक मिथ्या देवो व रागी-द्वषी देवो की उपासना नही करते, बल्कि भवनत्रिक और स्वर्गवासी देवो का भी उनकी निर्मल दृष्टि मे कोई महत्व नहीं रहता है। वे केवल वेषमात्र के पुजारी नही होते हैं, उसके साथ समीचीन गुणो को भी देखते हैं । वे भेदविज्ञान के धारी नाशवान् सासारिक वैभव को पाकर कभी अभिमान नहीं करते हैं, क्योकि वे सम्यग्दष्टि तो सबसे बडा वैभव धर्म को समझते हैं। जैसा कि समतभद्राचार्य ने फरमाया है
श्वापि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्मकिल्विषात्। - कापि नाम भवेदन्या संपद्धर्माच्छरोरिणाम् ॥
अर्थ जिस संसार मे धर्म के फल से कुत्ता भी मरकर देव हो जाता है और पाप के फल से देव भी मर कर कुत्ता हो जाता है। उस ससार मे जीवो को धर्म के सिवा अन्य क्या संपदा हो सकती है ?
| यदि पापनिरोधोऽन्य संपदा कि प्रयोजनम् । ( अथ पापाश्रवोस्त्यन्य सपदा कि प्रयोजनम् ॥
अर्थ-यदि पापाश्रवका निरोध है किन्तु किसी लौकिक संपदा का कोई लाभ नही हो रहा है तो न सही। उस लौकिक सपदा से जीव को प्रयोजन भी क्या है ? पापो का निरोध होना, यह क्या कम सपदा है ? इस आत्मिक सपदा से तो उसे एक दिन मोक्ष की शाश्वती लक्ष्मी मिलेगी। और यदि घोर पाप कर्मों का आश्रव हो रहा है किन्तु साथ ही उससे धनादि लौकिक