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दिगम्बर परम्परा मे श्रावक-धर्म का स्वरूप ] [ २३१
सकता है, उसके दिल मे ऐसे विचार पैदा हो सकते है कि धर्मसाधन के मधुर फल आगामी भव मे मिले या न मिलें इस दुविधा मे वर्तमान मे कष्ट में क्यो भोगू ? इसलिये साधक की देव - गुरु-शास्त्र पर पक्की श्रद्धा होनी चाहिये। तभी वह नि शक होकर साधना मे प्रवृत्त हो सकता है। उसकी ऐसी समझ होनी चाहिये कि - मोक्षमार्ग के प्रणेता जितने अर्हत देव हुए हैं वे भी किमी दिन मेरी ही तरह से दुखिया ससारी थे । फिर जिन साधनाओ से उन्होने सर्वोच्च स्थान पाया, उन्ही साधनाओ को उन्होंने भव्यजीवो को बताया है । साथ ही उसे इतना बोध भी होना चाहिये कि जिस ससार के दुःखो से वह छूटना चाहता है वह ससार क्या है ? और उसमे यह दुखी क्यो है ? दुख इसको कौन देता है ? और जिस कारण से वह इस दुख-मय ससार मे पडा हुआ है तथा उसका स्वयं का स्वरूप क्या है ? मोक्ष क्या है जिसको वह प्राप्त करना चाहता है । मोक्ष प्राप्ति के अव्यर्थ साधन कौन हैं ? इन सबकी जानकारी होने को ही तत्वबोध कहते हैं । ससार, संसार के कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारण इन चारो का परिज्ञान होकर उनपर अटल प्रतीति होना इसी का नाम तत्वार्थं श्रद्धान है ।)
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उक्त चार बाते ही सात तत्व है, उनसे भिन्न कोई तत्व नही है । जीव, अजीव, आश्रव, वध, सवर, निर्जरा और मोक्ष ऐसे ७ तत्व माने हैं। जीव अजीव ये २ तत्व ससार है। आश्रव ध ये २ तत्व ससार के कारण हैं एवं सवर - निर्जरा ये २ तत्व मोक्ष के कारण हैं, और मोक्ष यह जीव का साध्य तत्व है । इस वास्ते साधक के लिये तत्वार्थ- श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन भी होना अति आवश्यक है । इस प्रकार के सम्यग्वत्टि जीव ऐसे विवेकी और पारखी (परीक्षक) हो जाते हैं कि वे 'तथ्यहीन लौकिक
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