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[ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भौष २
कि - अमुक सीमा तक का आचरण श्रावक धर्म कहलाता है और उसके ऊपर का आचरण मुनिधर्मं कहलाता है । जैसे विद्यालय मे नीची-ऊँची कक्षायें होती हैं जिन्हे क्लासे बोलते है. उसी तरह श्रावक धर्म मे भी नीची-ऊंची कक्षाये (श्रेणियें) होती हैं। श्रावक धर्म के विविध आचारो को आचार्यों ने ११ श्रेणियो मे विभाजित किया है। वे ११ श्रेणियाँ ११ प्रतिमाओं के नाम 1 से बोली जाती है) । प्रथय प्रतिमा में प्रवेश करने वाले श्रावक के लिये यह आवश्यक होता है कि वह सम्यग्दर्शन का धारी हो । बिना उसके वह श्रावक धर्म की प्रथम कक्षा मे भी नहीं बैठ सकता है । यह कोई नियम नहीं है कि - श्रावक धर्म की सब कक्षाओ का अभ्यास किये बाद ही मुनिधर्म मे प्रवेश हो सकता हो । यदि ससार शरीर भोगो से तीव्र विरक्तता हो जाये तो वह वगैर श्रावक धर्म की पालना किये भी एकदम से मुनि बन सकता है, किंतु मुनिधर्म मे प्रवेश करने के लिये भी यह जरूरी होता है कि वह पहिले सम्यक दर्शन को प्राप्त करले ।
( सच्चे देव - गुरु-शास्त्रो का श्रद्धान करना और जीवादि तत्वो के स्वरूप को समझकर उन पर प्रतीति करना सम्यग्दर्शन कहलाता है । इस सम्यग्दर्शन के बिना श्रावक और मुनि दोनों ही धर्मो में प्रवेश करने का अधिकारी नहीं होता है । इसका कारण यह है कि - किसी मुमुक्ष जीव को जिस उत्तम सुख की अभिलाषा लगी हुई है, उसको प्राप्त करने के साधनो की जानकारी जिन देव - शास्त्र - गुरुओ से उसे मिली है, उनपर उसका अगर पक्का श्रद्धान नही होगा तो वह धर्म की साधना मे शिथिल रहेगा, क्योकि धर्म का साधन करने मे अनेक कष्टोपरीपो का सामना करना पडता है । उस वक्त यदि कच्ची श्रद्धावाला हो तो साधना के कष्टो से घबडा कर भ्रष्ट भी हो