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मूर्ति निर्माण की प्राचीन रीति ]
मूर्ति घडाने के लिये जगल मे कैसा हो और किस विधि से लाया जावे मूर्ति घडाई जावे इत्यादि कथन जो इन प्रतिष्ठा ग्रन्थो मे लिखा मिलना है उसकी जानकारी आधुनिक जैन
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जाकर खान से पाषाण और कैसे कारीगर से
समाज को नही के वसुनदिकृत प्रतिष्ठा
वरावर है । अत मैं यहा उस प्रकरण को पाठ से लिखता हू । यह वर्णन उसके तीसरे परिच्छेद मे है ।
गृहे निष्पाद्यमाने च निष्पन्ने भावयिष्यति । शिला विवार्थमानेतु गच्छेच्छिल्पि समन्वित ॥६७॥
जिन मन्दिर बन रहा हो उसके पूर्ण होने मे अभी थोड़ा काम वाकी हो तब ही प्रतिमा बनाने के लिए पाषाण लेने को शिल्पी के साथ जावे |
कृत्वा महोत्सवं तत्र निमित्तान्य वलोक्य च । यात्रानुकूल नक्षत्रे सुलग्ने शोभने दिने ॥६८॥
जाने से पहिले वहा उच्छव करे और शुभ निमित्तो को देखे । फिर उत्तम लग्न और शुभ दिन मे अनुकूल नक्षत्र के होते यात्रा करे ।
( आगे ७ श्लोक मे यात्रा मुहुर्त सम्बन्धी ज्योतिष का विषय लिखा है । विस्तारभय से वह कथन यहा छोड़ा जाता है | ) सम्यगवेषयेच्छिला ।
नदी नगवनेषु
च ॥७६॥
गच्छत्वेवं प्रसिद्ध पुण्य देशेषु
प्रयत्नेन
प्रसिद्ध पुण्य स्थानो, नदी, पर्वत, वनो मे यत्न के साथ अच्छी तरह से प्रतिमा बनाने योग्य
ढूढना चाहिए ।
जाकर वहा पाषाण को