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३३२ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
श्वेता रत्ता 5 सिता पीता मिश्रा पारावतप्रभा । मुद्गकापोतपद्मामा मजिष्ठाहरिताप्रभा ॥७॥ कठिना शीतला स्निग्धा, सुस्वादा सुस्वरा दृढा । सुगंधात्यंततेजस्का मनोज्ञा चोत्तमा शिला ॥७॥
वह शिला जिससे कि प्रतिमा बनाई जायेगी सफेद, लाल, काली, पीली, कर्बुरी, सलेटिया, मू गिया, कबूतरिया, कमल जैसे रग की, मजीठ के रंग जैसी और हरे रग की होनी चाहिये । और वह कठिन, ठण्डी, चिकनी, उत्तम स्वाद वाली, उत्तम आवाज की (झोजरी न हो) मजबूत, अच्छी गधवाली, अत्यन्त चमकीली, मनोहर और उत्तम होनी चाहिए।
मद्वी विवर्ण दग्धा वा लघ्वी रूक्षा च धूमिला। निःशब्दा विदुरेखादिर्षिता वजिता शिला ॥७६।।
जो कमल, कुवर्ण, जली हुई, हल्की, रूखी, धूमिल, बिना आवाज की, और विदुरेखादि दोषो वाली हो ऐसी शिला प्रतिमा बनाने के काम में नहीं लेनी चाहिये।। ।
परीक्ष्यवं शिलां सम्यक् तत्र कृत्वा महोत्सवम् । पूजां विद्याय शस्त्राग्न हकारेणाभि मंत्रयेत् ॥०॥
परीक्षा से उत्तम शिला मिल जाय तो खान में से उस शिला को काटने के पहिले वहा भली प्रकार उच्छ्व के साथ पूजा विधान करके जिस शस्त्र से शिला को काटनी हो उस शस्त्र के अगभाग को "ओम् हू फट् स्वाहा” इस मत्र से मत्रित कर लेवे।
शिलां विभिद्य शस्त्रेण पुनगंधादिभिर्यजेत् । प्रदोषसमये कृत्वा गधै हस्तानू लेपनम् ॥१