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मूर्ति निर्माण की प्राचीन रीति ]
फिर उस शस्त्र के द्वारा शिला को काटकर उसकी गधादि से पूजा करे । तत्पश्चात् रात्रि के पूर्व भाग मे गध द्रव्यो का हाथो मे लेपन करके
सिद्धक्ति बिधाया दो मंत्र मनसि संस्मरेत् ।
ओम् नमोस्तु जिनेन्द्राय ओम् प्रज्ञाश्रवणे नम ॥२॥ नम केवलिने तुभ्यं नमोस्तु परिमेष्ठिने । स्वप्ने मे देवि विद्यांगे ब्रूहि कार्य शुभाशुभम् ।।३।। अनेन दिव्यमंत्रेण सम्यग्ज्ञात्वा शुभाशुभम् ।
प्रात स्तन पूनर्गत्वा पूजयेत्ता शिला तत ॥४॥ और प्रथम ही सिद्धभक्ति का पाठ करके आग के मत्र का मन मे स्मरण करें। "ओम् नमोस्तु जिनेन्द्राय, ओम् प्रज्ञाश्रवणे नमः । नम केव लिने तुभ्य, नमोस्तु परमेष्ठिने ।। स्वप्ने मे देवि । विद्यागे ।, ब्रहि कार्य शुभाशुभ" । इसका स्मरण करते हुये सो जावे । इस दिव्यमत्र से स्वप्न मे अच्छी तरह शुभा शुभ जानकर यदि कार्य शुभ दीखे तो प्रभात ही फिर कहा जाकर उस शिला की पूजा करे ।
यथा कोटिशिला पूर्व चालिता सर्व विष्णुभिः । चालयामि तथोत्तिष्ठ शीघ्र चल महाशिले ॥८॥ सप्ताभिमत्रिता कृत्वा मत्रेणानेन तां शिलाम् । पीडार्थ प्रतिमार्थ वा रथमारोपयेत्ततः ॥८६॥
"यथा कोटिशिला। ." यह पूरा श्लोक ही मत्र है। इस मत्र से उक्त शिला को ७ बार मत्रित किये वाद बैठक सहित प्रतिमा को बनाने के लिये उस शिला को रथ मे रखकर ले चले।