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[ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
एवमानीय तां सम्यक् त्रि परीत्य जिनालयम् । कृत्वा महोत्सवं तत्र सुदिने संप्रवेशयत् ॥८७॥
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इस प्रकार उस शिला को अच्छी तरह लाकर किसी शुभ दिन मे उच्छव करके और जिनालय की तीन प्रदक्षिणा देकर जिन मन्दिर मे ले जावे ।
वही शिल्पी को बुलाकर उससे उस शिला की मूर्ति घडाई जावे | इस सम्बन्ध मे आशाधरकृत प्रतिष्ठा पाठ मे इस प्रकार लिखा है
सुलग्ने शांतिकं कृत्वा सत्कृत्य वरशिल्पिनम् । तां निर्मापयितुं जैनं बिंबं तस्मै समर्पयेत् ॥ ६१ ॥ सदृष्टिर्वास्तु शास्त्रज्ञो मद्यादि विरत शुचिः । पूर्णांगो निपुण शिल्पी जिनार्चाया क्षमादिमान् ॥ ६२ ॥ [ अध्याय १]
अर्थ - शाति विधान करके शुभ मुहुर्त मे जिनबिंब बनाने के लिये किसी अच्छे कारीगर को सत्कारपूर्वक वह शिला सुपुर्द कर देवे । वह कारीगर तेज नजर का, वास्तु शास्त्र का ज्ञाता मद्यादिका त्यागी, पवित्र, पूर्णांगो, शिल्पकाम मे निपुण और क्षमादिकाधारी - अक्र र परिणामी होना चाहिये । ऐसा शिल्पी जिन विब बनाने के योग्य होता है ।
पाठक देखेगे कि जिन प्रतिमा बनाने के कहा तो पूर्व काल के विधि-विधान और कहा आज की प्रथा, दोनो मे आकाश पाताल का अन्तर है । प्रतिमा निर्माणार्थ पाषाण लाने की विधि तो दूर रही आजकल तो इतना भी विचार नही किया जाता कि जिस मूर्ति को हम प्रतिष्ठार्थं ले रहे है उसका घडने