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मूर्ति निर्माण की प्राचीन रीति ]
[ ३३५ वाला शिल्पी कही मद्यमासाहारी तो नही है ? बस वाजार बिकती चीज खरीद की और प्रतिष्ठा मे रख दी ऐसी मूर्तियो मे चमत्कारो की आशा करना मृगमरीचिका है । पाषाण को भगवान बनाना कोई बच्चोका खेल नही है । पूर्वकाल मे भगवान की मूर्ति घडने वाले सलावट भी ऐसे विचारवान् होते थे कि वे अपना खानपान शुद्ध रखते थे और पवित्र रहते थे और हम परमेश्वर की मूर्ति घडने वाले हैं इस बात से अपने आप मे गौरव का अनुभव करते थे । इसी से आशाधारजी ने आकर शुद्धि का वर्णन : करते हुए जन्मकल्याणक से भगवान् का प्रथम धूली कलशाभिषेक सूत्रधार ( शिल्पी) के हाथ से कराना लिखा है । ऐसे शिल्पियों का सन्मान भी उस जमाने मे खूवं किया जाता था । उनके सम्मान का उल्लेख भी आशाधरजी ने उक्त कलशाभिषेक के कथन मे किया है । इन्होने ही प्रतिष्ठाविधि मे गर्भकल्याणक के प्रसग में एक और उल्लेख किया है
सार्वकानि
वरवस्त्रफलप्रसून शय्यासनाशनविलेपन सडनानि । तत्तत्क्रियोपकरणानि तथेप्सितानि तीर्थेशमातुरुपदी कुरुतां धनेश ॥२०॥ [ अध्याय ४ ]
ओम् निधीश्वर जिनेश्वरमात्रे भोगोपभोगान्युपनयोपनयेति स्वाहा । चारुवस्त्र मुद्रिकाहार फल पत्रपुष्पादिक पीठाने प्रतिष्ठयेत् । तच्च सर्वं विश्वकर्मा गृहीयात् ।
अर्थ- सव ऋतुओ के उत्तम वस्त्र, फल, पुष्प, शय्या, आसन, भोजन, विलेपन, मडन तथा और भी उन उन क्रियाओं की साधक इच्छित सामग्री को कुबेर जिनमाता को भेंट करें ।