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२३६ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
सुन्दर वस्त्र, अगूठी, हार, फल, पत्र पुष्पादि भेट की सामग्री को "ओम निधीश्वर" मादि ऊपर लिखे मत्र को बोलते हुए भद्रासन के आगे रक्खे। उस सब सामग्री को शिल्पी ग्रहण करे । आजकल इनमे से वस्त्र, शय्या, आसन आदि चीजो को कोई कोई प्रतिष्ठाचार्य:पण्डित ले लेते हैं या यह सामग्री मेला कराने वाली पचायत या यजमान के अधिकार मे रह जाती है। पहिले इसके लेने का नियोग शिल्पी का था जैसा कि आशाधर जी ने कहा है।
गर्भावतार की विधि मे शिल्पी सम्बन्धी एक और उल्लेख आशाधरजी ने निम्न प्रकार किया है
"तामेव रहसि पुरानिरूपितप्रतिष्ठेयामह प्रतिमा नूतनसितसद् वस्त्रप्रच्छादिता पुरश्चरतटकिकाकरविश्वकर्मा सोधमन्द्रो महोत्सवेनानीय सुविशुद्धभद्रासनगर्भपद्म निवेशयेत् ।"
जिसके आगे टाको हाथ में लेकर प्रतिमा घडने वाला शिल्पी चल रहा है। ऐसा सीधर्मेन्द्र पूर्व कथित उसी प्रतिष्ठेय जिनप्रतिमा को नये सफेद उत्तम वस्त्र से ढककर और महोत्सव के साथ लाकर पवित्र भद्रासन पर कमल के मध्य में एकात मे स्थापन कर दे।*
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* आचार्यकल्प प० टोडरमलजी के साथी विद्वद्वर १० रायमल्लजी कृत 'ज्ञानानन्द श्रावकाचार" के पृष्ठ १०२-१०३ पर भी मूर्ति निर्माण के विषय में इस प्रकार वर्णन है ~
"आगे प्रतिमा का निर्मापण के अथं खान जाय पाषाण लावे ताका स्वरूप कहिये हैं सो वह गृहस्थो महा उछाव सू खान जावे