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हरिश चन्द्र टोलिए 15. नवजीवन उपवन, मोती डूंगरी रोड, जयपुर-त
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मूर्ति निर्माण की प्राचीन रीति
आज कल हम देखते हैं कि जिस किसी बन्धु को जिन मूर्ति की प्रतिष्ठा करानी होती है, वह यदि मूर्ति बडे परिमाणकी चाहता हो या और कोई विशेष प्रकार की चाहता हो और वैसी बनी बनाई तैयार मूर्ति कारीगरों के यहाँ नही मिलती हो तो प्रतिष्ठा से बहुत पहिले ही किसी कारीगर को साई देकर व कीमत तय करके उसका सौदा कर लिया जाता है और जो साधारण प्रतिमा की ही प्रतिष्ठा करानी होती है तो प्रतिष्ठा के आस-पास के वक्त में ही बनी बनाई मूर्ति किसी कारीगर से खरीद ली जाती है । जहाँ पचकल्याणक प्रतिष्ठा का महोत्सव होता है वहां भी तैयार मूर्तियां लेकर बेचने को कितने ही कारीगर लोग पहुँच जाते हैं। उनसे भी कितने ही जैनी भाई मूर्तियाँ खरीद कर प्रतिष्ठा करवा लेते हैं । आज कल सर्वत्र ऐसा ही आम रिवाज हो गया है। इस विषय मे शास्त्रोक्त मार्ग क्या है उसे लोग भूल से गये हैं। आज से करीब सवासात सौ वर्ष पूर्व के बने प० आशाधरजी के प्रतिष्ठा पाठ मे इस विषय मे जो कथन किया गया है उसको देखने से मालूम होता है कि आज की यह प्रथा पुराने जमाने मे नहीं थी । इस विषय मे जैसा कथन आशाधरजी ने किया है वैसा ही प्राय. वसुनन्दी ने भीं स्वरचित प्रतिष्ठा सार संग्रह ग्रन्थ मे किया है। यह प्रतिष्ठा पाठ अभी तक मुद्रित नही हुआ है ।