________________
३५२ ]
[ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
मनोज्ञ मे ही आती है। उनके मन्त्रो मे स्वाहा बोलकर उन्हे आहुतिये देना यह उनका सम्मान है मो ही उनका वैय्यावृत्य ह उनकी सेवा है और वह एक तप है। उसका फल यदि कोई पद परमस्थान की प्राप्ति होना चाहता है तो इसमे क्या असगतता
है ? आयतन सेवा भी धर्म का अग है ही। और स्वामी समत_ 'भद्र ने भी रत्नकरड मे देव पूजा तक का समावेश वैय्यावृत्य मे किया है।
इस प्रकार पीठिकादि मन्त्रो मे प्रयुक्त कतिपय शब्दो का अर्थ अगर सिद्ध भगवान् न करके उनका सहजरूप से होने वाला प्रचलित अर्थ भी किया जावे तो उससे भी शासनदेव पूजा की सिद्धि नहीं होती है। और तो क्या इस सारे ही प्रकरण मे शासन देवी के नाम तक भी नहीं है । सुरेन्द्र मन्त्रो मे जिसप्रकार सौधर्मेन्द्र को आहुति दी गई है उसी प्रकार निस्तारक मन्त्रो मे सम्यग्दृष्टि गृहस्थाचार्य को भी आहति दी गई है। दोनो ही परमस्थान के धारी होने के कारण उनके लिये आहुति लिखकर उनका सन्मान वढाया है। वह सन्मान भी लौकिक क्रियाओ तक ही सीमित है पारमार्थिक विधानो मे तो पच परमेष्ठी की ही आराधना की जाती है । सप्त परमस्थानो मे भी सव का समान पद नही है इसी लिये मन्त्रो मे अहंत-सिद्ध गुरुओ को तो नम' लिखा गया है, *स्वाहा आहुति भी नही और शेष परमस्थानो को खाली स्वाहा (आहुति मात्र) लिखा गया है। इसका यही मतलब निकलता है कि इनकोही आहुति देना, परमेष्ठियो को
★आहुति (आह्वान) और स्वाहा का मतलब बुलाना, स्मरण करना, शिष्टाचार मात्र है।