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पीठिकादि मंत्र और शासनदेव ]
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इन मन्यो का नही है। बल्कि ये मन्त्र तो उल्टे गर्भाधानविवाहादि ससार के बढाने के काम मे लिये जाते है। और जो ऐसे कामो मे सिद्धपूजा की जाती है बह तो मागलिकरूप से मगल के तौर पर की जाती है ।
५३ गर्भावय क्रियाओ मे २२ वी गृहत्याग क्रिया के बाद तो हवनादि सम्भव ही नही है अंत वहा तो इन मन्त्रो का कोई उपयोग ही नहीं होता है गृहत्यागक्रिया से पहिले भी गर्भाधान से लेकर पाच वी मोद क्रिया तक की क्रियाओ मे नवमी निषद्या क्रिया, १०वी अन्नप्राशन क्रिया और १६ वी विवाह क्रिया इन क्रियाओ मे इन मन्त्रो का प्रयोग करने का उल्लेख आदिपुराण मे किया है और ये सब क्रियायें सासारिक है। अत ये मन्त्र सासारिक कार्यों के लिये हैं ऐसा कहे तो सभवत इसमे कोई अत्युक्ति नही होगी। और इसीलिये इन विवाहादि क्रियामो के अनुष्ठान जिन मन्दिर मे नही होते है, गृहस्थ के घर पर होते है। जैनरीति से की जाने के कारण व्यवहार मे हम इन्हें धार्मिक क्रियाये कहते हैं । जैन धर्म के गौरव को रखने के लिये ऐसे काम भी बडे आवश्यक हैं जिससे कि हमे लौकिक कामो मे भी अजैन ब्राह्मणो के अधीन न रहना पडे । और सभवतः इसी ध्येयको लेकर जिनसेनने यह क्रियाकाड लिखा है ।
रही बात "सेवाफल षट् परमस्थान" की सो तत्वार्थराजबार्तिक अध्याय ६ सूत्र २४ मे वैय्यावृत्य नाम के तप का वर्णन करते हुये आचार्य उपाध्याय मनोज्ञ आदिको का वैय्यावृत्य करना लिखा है। वहाँ मनोज्ञ का अर्थ असयत सम्यग्दृष्टि लिखकर उनका भी वैष्यावृत्य करने को कहा है। परमस्थान के धारी सुरेन्द्र व निस्तारक की गणना भी तो वैय्यावृत्य के भेद