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हैं ऐसा भगवान ने कहा है । अत उस विषय के ज्ञाता श्रावकों को प्रमाद छोडकर उनका प्रयोग करना चाहिये ।
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★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
इस कथन से यही प्रगट होता है कि ये मंत्र भगवान् की पूजा के नही हैं । ये तो गर्भाधानादि क्रियाओ के मत्र हैं । भगवान् की पूजा तो पहिले हो चुकती है । फिर गर्भाधानादि क्रियाओ के वास्ते उस पूजा के बचे द्रव्यो से मत्रो को बोलकर आहुति दी जाती है । इससे पूजा और मत्राहुतिये दो जुदी २ चीजें हुई । किन्तु भगवान् की प्रतिमाके सामने उनकी पूजा पूर्वक मत्रो से आहुतियें दी जाने के कारण यह सारा ही विधान ममुच्चय रूप से सिद्धार्चन के नाम से कहा जाता है । इसलिये एतं सिद्धार्चन" इन वाक्यो का अर्थ इन मंत्रो मे "सिद्धो की पूजा करे ।" ऐसा नही करना चाहिये, किन्तु इन मन्त्रो के साथ सिद्धो की पूजा करे" ऐसा अर्थ करना चाहिये । उसका मतलब यह होगा कि - सस्कार करते वक्त दो काम करने चाहिये - सिद्धो की पूजा करे और मन्त्रो से आहुतियें देवें दोनो भिन्न २ है । मन्त्रो से आहुतिया देना सिद्धपूजा नही है । आहुतियो के मन्त्र तो गर्भाधान, विवाह आदि सासारिक क्रियाओ के काम के हैं । इसीलिये ग्रन्थकार ने इन्हे क्रियामन्त्र नाम से लिखा है । यथा
"क्रियामत्रास्त एते स्युराधानादिक्रियाविधो” यही बात इन वाक्यों से भी व्यक्त की है
"विनियोगस्तु सर्वासु क्रियास्वेषा मतो जिन. "
तात्पर्य इसका यह है कि ये जनमन्त्र हैं । इन मन्त्रो का सांसारिक क्रियाओ मे उपयोग करना यह जैनरीति कहलाती है जो जिनेन्द्र की पूजा संसार और कर्मों के नाश करने के लिये व मोहादि विकारो को मिटाने के लिये की जाती है वह उद्देश्य