________________
पीठिकादि मंत्र और शासनदेव ]
[ ३४६
इस दिशा मे ऐसा ही कुछ हम यहा लिखने का प्रयत्न करते हैं
.....
..
आदिपुराण पर्व ३८ श्लो० ७१ आदि मे लिखा है कि गर्भाधान आदि क्रिया सस्कारो के करते वक्त प्रथम ही वेदी बनाकर उस पर सिद्ध या अहंत का बिम्व विराजमान करे । उस के सामने तीन कुन्डो मे तीन अग्नियो की स्थापना कर वहीं छत्रत्रय और " • चक्रत्रय की स्थापना किये बाद प्रथम ही सिद्धपूजा करके फिर पीटिकादि मन्त्रो से हवन करना चाहिये" यह सब विधिविधान सिद्धार्चन कहलाता है । इसमे दो बातें बताई हैं - एक तो सिद्ध भगवान की पूजा करना और दूसरी किसी क्रियासस्कार के निमित्त मन्त्रो से हवन करना । हवन करना यहा सिद्धपूजा नही है । सिद्धपूजा तो हवन के पहिले ही हो चुकती है । जैसा कि आदिपुराण मे लिखा है
वर्ह दिज्याशेषांशः
आहुतिमत्र पूर्विका । विधेया शुचिभिद्रव्यैः पुंस्पुत्रोत्पत्तिकाम्यदा ।।७३॥ तन्मंत्रास्तु यथान्माय वक्ष्यतेऽन्यत्र पर्वणि । सप्तधापीठिकाजाति मंत्रादिप्रविभागत. ॥७४॥ विनियोगस्तु सर्वासु क्रियास्वेषां मतो जिनं । अव्यामोहावतस्तज्ज्ञैः प्रयोज्यास्त उपासकै ॥७५॥ पर्व ३८
अर्थ - अर्हत्पूजा कर चुकने के बाद बचे हुये पवित्र द्रव्यों से पुत्रोत्पत्ति की इच्छा से उन अग्नियो मे मंत्रपूर्वक आहुति करनी चाहिये। उन क्रियाओ के मत्र तो यथाम्नाय आगे के पर्व मे कहे जायेंगे । वे पीठिकामत्र जाति मन्त्र आदि के भेदो से सात प्रकार के हैं । वे मन्त्र गर्भाधानादि क्रियाओ मे काम आते
1