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[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
श्राविकाओ के उस प्रकार से ममत्व का त्याग नही होता इसलिये उनमे उपचार से भी निर्ग्रन्थता का व्यवहार नही है । अत उनके आपवादिक लिंग होता है । सन्यासकाल मे योग्य स्थान आदि न मिले तो आर्थिकाओ के पूर्वकालीन लिंग ही रहता है । तथा चल्लिकाओ के सन्यासकाल मे क्षुल्लक पुरुषो की तरह उत्सर्ग लिंग और अपवाद लिंग दोनो होते है । तात्पर्य यह है कि - आर्यिका मृत्युकाल मे योग्य स्थान के मिलने पर वस्त्र मात्र को भी त्याग देती है और क्ष ुल्लिका योग्य स्थान मिलने पर यदि महद्धिका, सलज्जा और कट्टर मिथ्यात्वी जाति की न हो तो वह भी क्षुल्लक पुरुष की तरह वस्त्रो को त्याग कर नग्न हो जाती है । और यदि वह सलज्जा आदि हो तो समाधि मरण के समय मे अपने पूर्वलिंग को धारण की हुई ही मरती है ।"
क्षुल्लिका वह कहलाती है जो आर्यिका से कुछ अधिक वस्त्र रखती है और जितना रखती है उतने मे भी उसके ममत्व भाव रहता है मस्तक के वाल केची आदि से उतरवाती है । उसे क्षुल्लक पुरुष के स्थानापन्न समझनी चाहिये। उसकी गणना श्राविकाओ मे की जाती है । और आर्यिका के अपनी माडी मे ममत्व नही होता इसलिये वह सवस्त्रा होकर भी मुनि के स्थानापन्न समझी जाती है और इसी से शास्त्रो में उसके उपचार से महाव्रत माना है ।
इन उपर्युक्त उल्लेख से यही प्रगट होता है कि - उत्कृष्ट श्रावको ( क्षुल्लको ) के लिये समाधिमरण के अवसर मे नग्न हो जाने की शास्त्राज्ञा है । जिससे कि उनमें महाव्रतो की स्थापना करके उन्हे आरोपित महाव्रती बना सके । इसका अर्थ