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समाधिमरण के अवसर में मुनिदीक्षा ]
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मुनि दीक्षा नही है । क्योकि ऐसा करना तो आर्यिका व क्ष ुल्लिका श्राविका के लिये भी लिखा है तो क्या नग्न हो जाने से इनकी भी मुनि दीक्षा मान ली जावे ? और तब क्या उनके छठा गुणस्यान सनझा जावे ? नग्न हो जाना मात्र कोई मुनि दीक्षा नही है। मुनि दीक्षा में लौंच कराया जाता है, पिच्छिका पकडाई जाती है । पर यहा ऐसा कुछ नहीं लिखा है । न यहा उनको मुनि नाम से ही लिखा है । तब यह कैसे माना जावे कि समाधिमरण के वक्त मे क्षुल्लक को मुनि दीक्षा देने का विधान है । यदि कहो कि क्षुल्लक के लौंच पिच्छी तो पहिले से ही चली आ रही है जिससे नही लिखा है। इसका उत्तर यह है कि भले ही पहिले से चनी आवे तब भी मुनि दीक्षा के वक्त भी लौंचादि करा कर ही दीक्षा दिये जाने का नियम है । और सभी क्षुल्लक लौंच करें ही ऐसी भी शास्त्राज्ञा नही है । इसलिये यह भी नही कह सकते कि क्षुल्लक के लोच पहिले ही से चला आ रहा है । यह विचारने के योग्य है कि उक्त श्लोक ४४ मे क्षुल्लक मे महाव्रती का आरोप करना लिखा है । इस आरोप शब्द पर भी ध्यान देना चाहिये । रत्नकरड श्रावकाचार के 'आरोप ये महाव्रतमामरणस्थायि नि. शेषम् ।। १२५ ।। पद्य में भी महाव्रतो का आरोप करना ही लिखा है । मेधावी
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श्रावकाचार मे (अधिकार १० श्लो० ५४ ) तथा चामुण्डराय - कृत चारित्रसार मे भी आरोप ही लिखा है । सभी ग्रन्थो में एक आरोप के सिवा दूसरा शब्द प्रयोग न करने में भी कोई रहस्य है । और इससे यही प्रतिभासित होता है कि - सन्यास काल में नग्न होने का अर्थ मुनि बनने का नही है । जिस पुरुष को कामेन्द्रिय मे चर्मरहितत्व आदि दोष होते है उसको मुनि दीक्षा देने का आगम मे निषेध किया है । उस प्रकार के