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[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
दोप वाले क्षुल्लक को भी ऊपर उद्धृत श्लोक ३५ मे सन्यास काल मे नग्नलिंग दिया गया है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि - यहा की इस नग्नता का मुनिदीक्षा से कोई सम्बन्ध नही है | चारित्रसार मे लिखा है कि गूढ ब्रह्मचारी नग्न वेप मे रहकर ही विद्याध्ययन करता है। इसलिये सभी जगह नग्न हो जाने का अर्थ मुनि बनना नही है । सागराधर्मामृत के इसी वें अध्याय के अन्त मे आराधक के उत्तम, मध्यम, जघन्य तीन भेद करके उनकी आराधनाओ का फल बताते हुए लिखा है कि - " उत्तम आराधक मुनि उसी भव मे मोक्ष जाता है । मध्यम आराधक मुनि इन्द्रादि पद को प्राप्त होता है । और वर्तमान काल के मुनि जो कि जघन्य आराधक है वे आठवे भव मे मोक्ष पाते हैं । इतना कथन किये वाद आगे आशा धर जो लिखते है कि यह तो मुनियों की आराधना अर्थात् समाधिमरण का फल बताया । अव श्रावको की आराधना का फल बताते हैं । जो कि श्रमणलिंग धारण कर समाधिमरण करते है ।
इस कथन से यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि समाधिमरण के समय मे जो श्रावक नग्न लिंग धारण करके आरोपित महाव्रती बनते है उनको आशाधरजी ने मुनि नही माना है ।
यहा यह भी ध्यान रखना चाहिए कि आशाधर ने जो यहा नग्नलिंग धारणकर आरोपितमहाव्रती बनने की बात लिखी हैं । वह भी आपवादिकलगी कहिये क्षुल्लक के लिये लिखी है न कि ७वी प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी आदि के लिये । पं० मेघावी ने भी स्वरचित धर्मसंग्रह श्रावकाचार के वे