________________
समाधिमरणके अवसर में मुनिदीक्षा ]
[ ૨૧૧
अध्याय में उत्कृष्ट श्रावक को अपवादलिगी कहा है । यषा
उत्कृष्टः श्रावको य प्राक्क्षुल्लोऽवेव सूचित.। स चापवालिंगी च वानप्रस्थोऽपि नामत ॥ २८० ॥
अर्थ-उत्कृष्ट श्रावक जिसे कि पहिले इस ग्रन्थ मे क्षुल्लक नाम से सूचित किया है उसीका नाम अपवादलिंगी और वानप्रस्थ भी है।
इस प्रकार ५० आशाधरजी के उक्त विवेचन से यही फलितार्थ निकलता है कि-जिस श्रावक को समाधिमरण के अवसर मे नग्नलिंग दिया जाता है वह ११वी प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक होता है और वह आरोपित महाव्रती माना जाता है मुनि नही। उस समय की नग्नता मुनि अवस्था की नहीं है। किंतु सन्यास अवस्था को है । ऐसा समझना चाहिये।
इसलिये आजकल जो ११ वी प्रतिमाधारी ही नही सातवी प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी तक को भी समाधिमरण के समय मे साक्षात् मुनि बनाकर व उसका नाम ही बदलकर मुनिपने का नाम रख दिया जाता है यह सब शास्त्र सम्मत नहीं है। मनमानी है। मैंने यह लेख मननशील विद्वानो के विचारार्थ प्रस्तुत किया है। मेरा लिखना कहाँ तक सही है इसका निर्णय वे करेंगे। निर्णय करते समय यह ख्याल रखेंगे कि-आशाधर ने समाधिमरण के इस प्रकरण मे नग्नलिंग की चर्चा की है, न कि मुनि होने की। क्योकि यहा इसीके साथ मे आयिका व श्राविका के सम्बन्ध मे भी नग्नता का कथन किया है। इससे यही सिद्ध होता है कि यहा जो वर्णन किया है वह नग्नलिंग का वर्णन किया है मुनि होने का वर्णन नहीं