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समाधिमरण के अवसर में मुनिदीक्षा ]
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की हो यानी राजघराने आदि की हो और नन्न होने मे उसे शर्मं आती हो तो वह नग्न न होकर क्षुल्लिका के वेप मे ही रह कर समाधि मरण करे ।
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ऊपर के श्लोको मे क्षुल्लक पुरुष के लिंग धारण का कथन किया है और इस श्लोक मे स्त्री क्ष ल्लिका के लिये कथन किया है । श्लोक में प्रयुक्त "स्वल्पीकृतोपधे वाक्य का अर्थ यहां क्षुल्लिका मालम पडता है । प० आशाधर जी ने इसी कथन को भगवती आराधना की गाथा ८१ की अपनी मूलाराधना टीका में निम्न प्रकार किया है।
“स्त्रियां अपि औत्सगिकं आगमेऽभिहित, परिग्रह मल्पं कुर्वत्या इति योज्यं । औत्सर्गिक तपस्विनीना, शाटकमात्र परिग्रहेऽपि तत्र ममत्वपरित्यागादुपचारतो नैर्ग्रन्थ्य व्यवहरणानुमरणात् । आपवादिक श्राविकाणा तथा विधममत्व परित्यागाभावादुपचारतोऽपि नै नभ्यव्यवहारानवतारात् । तत्र सन्यास काले लिंग तपस्विनी नामयोग्यस्थाने प्राक्तन इतरासा पुसामिवेति योज्यम् । इदमंत्र तात्पर्यं - तपस्विनी मृत्युकाले योग्ये स्थाने वस्त्रमात्रमपि त्यजति । अन्या तू यदि योग्य स्थान लभते, यदि च महद्धिका सलज्जा मिथ्यात्त्व प्रचुर ज्ञातिश्च न तदा 'पुवद्वस्त्रमपि मुचति | नो चेत् प्रातिगेनैव म्रियते ।"
अर्थ - आगम में स्त्री के भी उत्सर्ग लिंग वताया है वह अल्पपरिग्रहवाली श्राविका (क्ष ल्लिका) के सत्यासकाल मे बताया है। आयिकाओ के तो वैसे ही भीत्सर्गिक लिंग होता है । क्योकि उनके साडी मात्र मे भी भ्रमत्व न होने से उपचार से उनमें निर्यस्थता का व्यवहार है। जबकि क्षुल्लिका