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[ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
कहिये समाधिमरण कराने वाले आचार्य के अधीन करके और उनके वचनोसे अपने मे महाव्रतो की भावना भावे । यह उत्कृष्ट श्रावक यदि लज्जा आदि के वश से समाधिमरण के वक्त वस्त्र त्याग न कर सके तो वह अपने मे महाव्रतो का आरोपण नहीं कर सकता है। क्योकि सग्रथ को महाव्रतो के आरोपण करने का अधिकार नहीं है। उसे बिना आरोपित किये ही महाव्रतो की भावना भानी चाहिये ।
भगवती आराधना की गाथा ८० मे नग्नत्व, लौच, पिच्छिका धारण, और शरीर सस्कार हीनता ऐसे ४ चिह्न (लिंग) मुनि के बताये है ।
इस प्रकरण मे आशाधर ने श्लो ३८ मे ऐसा कहा है कि
औत्सगिकमन्यद्वा लिंगमुक्त जिन. स्त्रियाः। पुंवत्तदिष्यते मत्युकाले स्वल्पीकृतोपधे ॥३८॥
अर्थ-जिनेन्द्रो ने स्त्री के जो औत्सर्गिक और आपवादिक खिंग कहा है। उसमे औत्सर्गिक लिंग श्रुतज्ञो ने मृत्युकाल मे पुरुप की तरह एकातवसतिका आदि सामग्री के होने पर वस्त्र मात्र को भी त्याग देने वाली क्ष ल्लिका के लिये माना है । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार औत्सर्गिक लिंग धारण करने वाले पुरुप के मरण समय मे औत्सगिक लिंग ही कहा है । और आपवादिक लिंग वाले के लिये ऊपर जैसा कपन किया है वैसा ही स्त्री के लिये भी समझना चाहिये। अर्थात् योग्य स्थान मिलने पर आर्यिका नग्न लिंग धारण करे और क्षु ल्लिका भी नग्न लिंग धारण करे। किन्तु क्ष ल्लिका यदि समृद्धिशाली घर