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[ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ हरिवाससमुप्पन्नो जेण हरिऊण आणिो इहइ। तेण चिय हरिराया विक्खाओ तिहुयणे जाओ ॥ ७ ॥
पर्व २१ वां अर्थ-शीतलनाथके तीर्थमे कोसावी नगरीमे एक सुमुख नामका राजा हुआ। वही 'वीरक' कुर्विद★ (जुलाहा) रहता था। उसकी वनमाला स्त्रीको राजाने हरकर उसके साथ कामदेवके समान भोग भोगने लगा । एकदिन राजाने मुनिको प्रासुक दान दिया और वह वज्रपातसे मरकर स्त्री सहित हरिवर्प ( भोगभूमिक्षेत्र) मे पैदा हुआ। वह वीरक भी स्त्री वियोगसे - दुखी हो पोट्टिल (प्रोण्टिल) मुनिसे दीक्षा ले मरा और देव हुआ। अवधिज्ञानसे जानकर वह देव हरिवर्पमे उत्पन्न उक्त जोडेको हरकर चपानगरीमे लाया। हरिवर्षमे पैदा होने और वहासे हरकर लाने के कारण वह हरि राजाके नामसे विख्यात हुआ (आगे उसीसे हरिवश चला)। ३- सो हम्मीसाण सणकुमार माहिंदवभलोगों य ।।
लतयकप्पो य तहा छठो वि य होइ नायवों ॥३५॥ एत्तो य महासुक्को सहसारो आणवो तह य चेव ।' तह पाणओ य आरण अच्चुयकप्पो य बारसमो ॥३६॥
पर्व ७५
जन्म कैसे बताया जासकता है ? गाथा ४ व ७ मे 'हरिवास' पाठ है जत यहा भी वही होना ठीक है।
* इसने मुनि दीक्षा ली है, जुलाहा आम तौर पर नीच जाति होता है इसीलिये पद्मचरितमे वीरकको वणिज लिखा जान पडता है। शूद्र दीक्षाका यह भी दोनों ग्रन्थोमे साप्रदायिक खास भेद हो सकता है।