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अलब्धपर्याप्तक और निगोद ]
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कायिक वनस्पति ) से भी विरुद्ध जाता है । जयचन्द जी की वचनिका भी अस्पष्ट और कुछ भ्रात है ।
अत हमारी राय में भावपाहुड गाथा २८ के 'निगोद' का अर्थ " क्षुद्र" करना चाहिए गाथा २६ मे निगोद का पर्यायवाची क्षुद्र शब्द दिया भी है। इसके सिवा गोम्मटसार जीवकाण्ड में भी जो इसी के समान गाथा है उसमे भी निगोद की जगह क्षुद्र शब्द का प्रयोग है देखो --
तिष्णिसया छत्तीसा छावट्टि सहस्सगाणि मरणामि । अन्तो मुहुत्तकाले तावदिया चेव खुद्दमवा ॥ १२२ ॥
'निगोद' का 'क्षुद्र, कुत्सित, अप्रशस्त, हीन, अर्थ भी होता है देखो
( १ ) सूत्र प्राभृत गाथा १८ "तत्तो पुण जाई निग्गोद” मे निगोद का अर्थ श्रुतसागर ने अप्रशसनीय दिया है ( निगोदं प्रशंसनीयर्गात न गच्छतीत्यर्थः ) (२) हरिवंश पुराण ( जिनसेन कृत ) सर्ग ४ - मृदङ्ग नाडिकाकारा निगोदा पृथ्वीवये ॥ ३४७ ॥ ते चतुर्थ्यांच पंचम्यां नारकोत्पतिभूमयः ॥ ३४८ ॥ सर्वेन्द्रिक निगोदास्ते विद्वाराश्च त्रिकोणकाः ॥ ३५२ ॥ धर्मा निगोवजा जीया खमुत्पत्य पतन्त्यघः ॥ ३५५ ॥
नरंक में नारकियो के जो उत्पत्ति स्थान इन्द्रक आदि विल है उन कुत्सित स्थानो को यहाँ 'निगोद' कहा है ।