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[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
सातवाहन संभवत वे ही शालिवाहन राजा हैं जिनका शक सवत् आज १८५७ चल रहा है। इस ग्रन्थ पर कई संस्कृत टीकायें मुनी जाती है। श्वेनावर टीका का उल्लेख 'भास्कर' की पिछली किरण में भी हुआ है। लेख मे भी इसे अर्जन ग्रन्थ प्रकट किया गया है । इतनी टीकाओं के होते भी इसके कर्ता के विषय में ऐसा विवाद रहना एक आश्चर्य की बात है। अभी तक यह ग्रन्थ 'भावमेन' मुनि-रचित रूपमाला' नाम की टीकामहिन छपा है । और इसीलिये " कातन्त्र रूपमाला" इस नाम से प्रचार में आ रहा है । इम टोका के देखने से पता लगता है कि भावसेन मुनि दिगवर धर्म के माननेवाले थे। और उन्होंने अपने नाम के साथ त्रैविद्यदेव" और "वादिपर्वतवत्री ये दो विशेषण भी लिखे है । ये मुनि अधिक प्राचीन मालूम नही होते है । क्योकि इन्होने रुपमाला टीका की प्रशस्ति में एक एलोक दिया है वह सोमदेव कृत "नीतिवाक्यामृत" की प्रशस्ति गत पद्य की नकल है ।
तद्यथा-
क्षीणेऽनुग्रहकारिता समजने सौजन्यमात्माधिके, सम्मान नुतमावसेनमुनिषे त्रविद्यदेवे मयि । सिद्धान्तोऽयमथापि यः स्वधिषणागर्वोद्धत केवलम् सम्पद्धत तदीयगवंकुहरे वजायते मद्वचः ॥ "रूपमाला प्रशस्ति" अल्पेऽनुग्रहधीः समे सुजनता मान्ये महानादरः, सिद्धान्तोऽयमुदात्त-चित्त-चरिते श्रीसोमदेवे मथि । यः स्पर्धेत तथापि ददृढता प्रोटिप्रगाढा ग्रहस्तस्थाखवित गर्व पर्वतपविषकृतान्तायते ॥
नीतिवाक्यामृत प्रशस्ति”