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[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
१२१० मे बनाई है। इन सब उल्लेखो के आधार पर जयसेन का समय वि० स० १२०० करीब का सिद्ध होता है और ब्रह्मदेव का इनसे वाद का |
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इतिहास का वही खोजी तथ्य तक पहुँच सकता है जो तटस्थ होकर पक्षपात और आग्रह को न रखता हुआ समय २ पर मिलने वाले साधक-बाधक प्रमाणीके अनुसार अपने विचारो को बदलता रहता हो ।
अन्त मे माननीय सम्पादक जी सा० से हमारा सविनय " अनुरोध है कि इस विषय मे आपने जो अपने विचार द्रव्यसंग्रह की प्रस्तावना मे व्यक्त किये है उन पर शान्ति से पुनः मनन करने का कष्ट करे ।
प्रस्तावना पृ० ४८ मे "आन इष्ट को ध्यान अयोगि, अपने चलन शुभ जोगि " पद्य का अर्थ - " इसे उन्होंने अपना इष्ट और शुभोदय समझा " ऐसा दिया है किन्तु सही अर्थ इस प्रकार होना चाहिए - अन्य इष्ट का ध्यान विचार अयोग्य है अपने इप्ट के यहाँ चलना ही शुभ और योग्य है ।
'लघुद्रव्य संग्रह' मे मुद्रण की गलतियो के अलावा भी
कुछ पाठ अशुद्ध है जिनके शुद्ध रूप इस प्रकार है :
अशुद्ध पृष्ठ ६० सखादासखादा
शुद्ध - सखासखाणता
अशुद्ध - पृष्ठ ६२ ठाण साहूण
शुद्ध- ताण साहूण अशुद्ध- पृष्ठ ६२ गणिणा शुद्ध - मुणिणा