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[* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २
भी टलने का कथन करता है जिन स्थानो मे ऐसे सूक्ष्म जीव पायेजाते हैं उन्हे अपने दिव्य ज्ञान से देखकर जनधर्म के सर्वदर्शी भगवान् ने उन स्थानो से यथाशक्ति बचे रहने की हिदायत की है। "खुद जीवो और दूसरो को जीने दो" यह जैनो का खास मिद्वान्त है। एतदर्थ वह कितने ही नियम भी बताता है। जैसेजल छानकर पीना, रात्रि मे भोजन न करना, अनत जीवो के पिण्ड ऐसे कदमूल न खाना, बहु जतु स्थान ऐसे हरे साग, पत्र, पुष्प, फल न खाना, सब से मैत्रीभाव रखना, प्रेम व्यवहार रखना, किसी से बैर विरोध न करना, शत्र का भी बुरा न चाहना आदि इसीके साथ वह ऊपर लिखे शेष ४ पापो के छोडने का भी पूर्णतया आग्रह करता है। एक गृहस्थ का जीवन भी अगर जैनत्व को लिये हुये हो तो वह इतना अधिक निर्दोष होगा कि भारतवर्ष को उसका अभिमान होना चाहिये* जैनधर्म की कथित आचरणव्यवस्था पर ध्यान देने से यह नि सदेह कहा जासकता है कि उससे समग्र देश और समाज मे अत्याचार और उत्पात मिटकर अमन चैन बना रह सकता है। और इस गुण से जैनधर्म को यदि विश्वहित का अवतार कहा जाये तो कुछ भी अत्युक्ति न होगी।
ईश्वरोयकथन
यो तो सभी मतवाले अपने २ मत की उत्पत्ति किसी ऋषिमुनि और ईश्वर के द्वारा हुई बताते हैं। यह एक परोक्ष बात है, अपनी उत्तमता दिखाने को चाहे कुछ भी कह दिया
* वह किसी भी देश की कोई भी दण्डविधान-धारा का कभी -भी शिकार नहीं हो सकेगा।