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जैन धर्म श्रेष्ठ क्यो है ? ]
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जाए । तथापि इसपर भी विचार हो सकता है। ईश्वर जो होता है वह काम, क्रोध, रागद्वषादि दोपो से रहित होता है। सर्वज्ञ होता है। इसलिये उसका उपदेश भी निर्दोप, पूर्वापरविरोधरहित सत्य, सर्व हित कर ही होगा। क्योकि वक्ता अपने गुण के मुआफिक ही व्याख्यान किया करता है । अत जिस मत मे न तो कामक्रोधादि दोषो के दूर करने का मार्ग सुझाया है और न कोई किसी खास हित के लिये ही कथन है तथा पूर्वापर विरोध जिन के वचनो मे पाया जाता है वह मत कदापि ईश्वरोक्त नही हो सकता। परोक्ष मे बोलने वाले पक्षी की आवाज सुनकर जैसे उसे बिना देखे ही जान लेते हैं वैसे ही किसी मत के वचन को देखकर ही उसके वक्ता का पता भी लग सकता है। यह एक सीधी सी बात है। जैनधर्म रागादि दोषो को हटाने की पूरी तौर से शिक्षा देता है। उसके सिद्धात मे कही कोई पूर्वापर विरोध भी नजर नही आता और वह हित कर्ता भी है जैसा कि ऊपर बतायागया है । इसलिये वही एक ईश्वरोक्त हो सकता है यह निश्चित है। उसके यहा इष्टदेव की मूर्ति बनाई भी रागादि दोषो से रहित जाती है। इसलिये भी उसका ईश्वरोक्त होना अधिक सभव है।
सद्धातिक विवेचन
जो धर्म सर्वज्ञ वीतराग द्वारा कहा हुआ होता है उसके सिद्धात मे अयथार्थता आही कसे सकती है। क्योकि असत्य कथन या तो ज्ञान की कमी से हो सकता है और या मोह, स्वार्थ लोभादि कषायो से हो सकता है । जैनधर्म वीतराग सर्वज्ञ आप्त के द्वारा प्रतिपादित है जैसाकि ऊपर कहा गया है । अत उसका अनेकातवाद, कर्म फिलासोफी, तात्विकसिद्धात आदि विषेच' '