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________________ जैन धर्म श्रेष्ठ क्यो है ? ] [ ३७३ काम करता रहता है इस तरह वस्तु-स्वभाव को मानने वाले जैन धर्म की बदौलत दुनिया के बहुत कुछ अत्याचार रफा हो सकते है। इसलिये कहना होगा कि जैन धर्म का अवतार विश्वहित के लिये है इमी प्रयोजन को लेकर वह हमारे सामने इतना अच्छा कार्यक्रम पेशकरता है जो सरल होने के साथ २ हमे पाप के कीचड़ से भी निकालता जाता है। हमे अगणित पापो के नाम गिनाकर उलझन मे नही डालता। किन्तु उन सब को पाच हिस्से मे बाट कर हमे सुगमरूप सुझाता है। वे पाच ये हैकिसी जीव को मताना, झ ठ बोलना, चोरी करना, जिनाकारो करना (व्यभिचार) और ममत्व- असतोप रखना। इन्ही पाच पापो मे सभी पाप समाजाते है। जैनधर्म इन्ही के त्याग का उपदेश देता है । जो जितनी मात्रा मे इनका त्यागी है वह उतना ही उत्तम चारित्री है। मनुष्यो की तरक्की के लिये जैनधर्म का चारित्र बहुत लाभकारी है । दर असल मे वह एक अहिंसाप्रधान धर्म है । यद्यपि अन्यधर्म भी अहिंसा का प्रतिपादन करते है, पर जैनधर्म जिस खूबी और जिस प्रणाली से व्याख्यान करता है वह निराली ही है। "याज्ञिकी हिंसा हिंसा न भवति" आदि कहने वाले अन्यधर्मों की तरह वह अपना अनुचित पक्षपात नहीं करता। वह नहीं कहता कि जैनधर्म के अर्थ की हई हिंसा अधर्म नहीं हैं। किसी को मौत के मुह मे पहचाने को ही जैनधर्म हिसा नही बताता किन्तु कषायवश किसी के दिल को दुखाना भी वह हिसा बताता है। साथ ही वह यह भी नही कहता कि मनुष्य और पशु जैसे मोटे जीवो को सताना ही हिंसा हो किन्तु वह तो आँखो से नजर न आनेवाला सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवो की हिसा से
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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