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[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
फिरोगे । " जैसा करे वैसा ही भरे" यह बात जैनधर्म ही बताता है वह यह नहीं कहता कि " किसी को सुखी- दुखी बनाना परमेश्वर के हाथ में है" । किसी मजहब की ऐसी मान्यता कि "सुख-दुख का कर्त्ता ईश्वर है " दुनिया के लिये उपयोगी नही हो सकती । ऐसी नसीहत से तो लोग पाप कमाने मे और भी अधिक उच्छृंखल - निरकुश बन सकते है । उनके दिल मे यह धारणा होना सम्भव है कि हमसे अन्याय जुल्म और अनर्थ हो भी जायेंगे तो एक दिन परमेश्वरकी खुशामद-भक्ति-करके पापाचार के फल से छूट जायगे । लल्लो-चप्पो से खुश होकर ईश्वर हमारे गुनाहो को माफ करदेगा, लेकिन जैनधर्म को देखिये - उसके यहाँ कोई ऐसी रियायत नही । वहतो डकेकी चोट कहता है कि "सुखी और दुखी होना खुद मनुष्यो के हाथ मे ही है । नेक चलन चलेगा तो सुख पावेगा, वरना दुख उठावेगा । यह तो वस्तु स्वभाव है जा किसी के पलटाये पलट नही सकता है । जैसे कोई शराव पीले तो उसके ऊपर शराब अपना जरूर असर
करेगी। शराब से यो कहा जाय कि "हे शराब । तुझे मे पीगया हू पर तू मुझे पागल मत बना" क्या शराब उसकी यह प्रार्थना सुनेगी ? कभी नहीं, वह तो असर डालेगी ही, क्योकि उसकी तासीर ही ऐसी है । ठीक वैसे ही जो पाप करेगा उसका फल उसे जरूर मिलेगा, पुण्य करेगा तो सुख रूप मिलेगा, क्यूँ कि पाप-पुण्य का स्वभाव ही ऐसा है - वस्तु स्वाभाव मे किसी की दस्तंदाजी चल नहीं सकती और इसके लिये किसी ईश्वर विशेप को बीच मे डालने की कोई जरूरत नही रहती, सब काम अपने आप वस्तु स्वभाव से ही होते रहते हैं । अग्नि का स्वभाव गर्म है, जल का शीतल है, इसमे कौन क्या कर सकता है " स्वभावोऽतर्क गोचर ” अलग-अलग पदार्थ का अगल-अलग स्वभाव अपना २