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अलब्धपर्याप्तक और निगोद ]
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२,६४, ८२ मे साधारण और निकोत दोनो को एकार्थवाचक लिखा है ।"
ऊपर जो ६६३३६ भव संख्या बताई है उसका मतलब यह है कि एक अलब्धपर्याप्तक जीव जिसकी कि श्रम और स्थावर पर्यायों में अलग-अलग अधिक से अधिक भव सख्या आगम मे वताई है उन सब भवो को यदि वह लगातार धारण करे तो ६६३३६ भव धारण कर सकता है । इससे अधिक नही, इन सबो को धारण करने मे उसे ८८ श्वास कम एक मुहूर्त्तकाल लगता है जिसे "अन्तर्मुहुर्त्त काल" सज्ञा शास्त्रो मे दी है । इस हिसाव से - अलब्धपर्याप्तक जीव एक उच्छ्वास मे १८ बार जन्मता है और १८ बार मरता है । अत १८ का भाग ६६३३६ मे देने से नब्ध सख्या ३६८५- १/३ आती हैं। यानी ३६८५ उच्छ्वासो मे वह ६६३३६ भव लेता है और एक मुहूर्त्त के ३७७३ उच्छ्वास होते है । फलितार्थ यह यह हुआ कि ६६३३६ भव लेने में उसे ८८ श्वास कम एक मुहूर्त का काल लगता है । इन ६६३३६ क्षुद्रभवो में से किसकिस पर्याय मे कितने कितने भव होते है उसका विवरण इस भाँति है
६ स्वामी कार्ति के यानुप्रेक्षा की संस्कृत टीका पृष्ठ २०४ गाथा २८४ मे लिखा है - निगोद शरीर येषा ते निगोदा निकोता वा साधारण जीवा । भाव पाहुड गाथा ११३ की स्रुतमागर कृत संस्कृत टीका मे भी निगोद और निकोत एकार्थवाची हो लिखे हैं ।
मूलाचार ( पचाचाराधिकार गाथा २८ को वसुनन्दि कृत टीका ) में पृष्ठ १६४-१६५ पर निकोत शब्द निगोद के पर्यायवाची रूप में दिया है ।
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