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[* जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
५.०६, भाग ८ पृष्ठ १६२, भाग १४ पृष्ट ८६ आदि मे है। ब्रह्मचारी मूलशकर जी देशाई ने अपनी वृहद् पुस्तक "श्री जिनागम" पृष्ठ १७५ से १८१ मे धवला के कथनो की आलोकी है और यहाँ तक लिखा है कि-धवलाकार ने "निगोद" के अर्थ को समझा ही नही है किन्तु हमे देशाई जी के कयन मे कुछ भी वजन नही मालुम पडता है। धवला का कथन कोई आपत्तिजनक नही है। अगर देशाई जी हमारे इस लेख की रोशनी मे पुनर्विचार करें तो उन्हे भी धवला का कथन सुसगत प्रतीत होगा।
भावपाहुड को उक्त २८ वी गाथा की संस्कृत टीका श्रुतसागर ने शब्दार्थ भात्र की है। अत उससे भी विषय स्पष्ट नही होता है।
इन दिनो श्री शान्तिवीर नगर से अष्ट पाहुड ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है जिसके हिन्दी अनुवादक श्री प० पन्नालाल जी साहित्याचार्य सागर हैं। अनुवादक जी ने उक्त गाथा २८ का अर्थ करते हुए लिखा है कि-६६३३६ भव निकोत जीवो के होते है न कि निगोद जीवो के। निकोत शब्द का अर्थ आपने लब्ध्यपर्याप्तक जीव किया है । किन्तु आपने ऐसा कोई शास्त्र प्रमाण नही लिखा जहाँ निकोत का अर्थ लब्ध्यपर्याप्तक किया हो। वल्कि लाटो सहिता सर्ग ५ श्लोक ६१,
५ जिस तरह "श्री महावीर जी" पोस्ट आफिस है उसी तरह नदी
के इस पार "श्री शातिवीर नगर"--नाम से अलग नया पोस्ट आफिस खुल गया है।