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पं० टोडरमल जी और शिथिलाचारी साधु ] [ ७७
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मोक्षमार्ग मे सम्यक्त्व और चारित्र का ही सर्वाधिक महत्व है । (इसलिए गुणस्थानो का क्रमसम्यक्त्व और चारित्र की अपेक्षा से है, ज्ञान की अपेक्षा से नहीं है । ज्यों ज्यो चारित्र बढ़ता जावेगा त्यो त्यो ही आत्मा ऊपर के गुणस्थानो में चढ़ता जावेगा । ऐसी बात ज्ञान की वृद्धि के साथ नहीं है - ज्ञान बढ़ता रहे तब भी गुणस्थान बढता नहीं ।)
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सबसे पहिले इस विषय मे हम महर्षि कुन्दकुन्द की वाणी उद्धृत करते है
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अस्संजद ण वदे वत्यविहोणोवि सोण वंदिज्जो । दोष्णिवि होति समाणा एगोवि ण सजदो होदि ।। २६ ।। "दर्शन पाहुड़"
अर्थ - असयमी कहिये जो कि महाव्रतो नही है -गृहस्थ है उसकी वन्दना न करे । और जो वस्त्र त्याग कर नग्नलिंगी बन गया है परन्तु सकल सयम का पालन नही करता है वह भी वन्दना के योग्य नही है। दोनो ही यानी गृहस्थ और मुनि वेषी एक समान है । दोनो मे एक भी सयमी - महाव्रती नही है ।
fungसह चरिय बहुपरियम्मो य गरूयभारो य । जो विहरइ सच्छद पाव गच्छेदि होदि मिच्छत् ॥ ६ ॥ 'सूत्र पाहुड़"
अर्थ - जो स्वच्छन्द कहिये जिनसूत्र को उलघन कर प्रवर्तता है, वह उत्कृष्ट सिंह - चारित्र का धारी, वहुपरिकर्मवाला और गच्छनायक ही क्यो न हो तव भी वह पापी और मिथ्यादृष्टि ही है ।