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[ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
भावविसुद्ध निमित्त बाहिरगंथस्स कीरए चाओ । बाहिरचाओ विहलो अभ्यंतरगथजुतस्स ॥ ३ ॥ भा पा
अर्थ- 'भावों को निर्मल रखने के लिये वाहिर मे परिग्रहो का त्याग किया जाता है। (त्याग करके भी जो अभ्यतर परिगह कहिये विषय कषायादि का धारी है तो उसके वाह्यत्याग निष्फल है ।
भावविमुत्तो सुत्तो णय मुसो बधवाइमित्तेन । इय भाविऊण उज्झसु गंथं अन्नंतर धीरा ॥ ४३ ॥ देहाविचत्तसंगो माणकसाएण कलुसिओ धीर । अत्तावणेण जावो बाहुबली कित्तियं कालं ॥ ४४ ॥ "भावपाहुड" अर्थ -- जो रागादिभावो का त्यागी है वही त्यागी माना जाता है । केवल कुटुम्वादि के त्याग कर देने मात्र से ही कोई त्यागी नही कहलाता है । हे धीर । ऐसी भावना रखकर तू अभ्यन्तर परिग्रह जो रागादि भाव उनका त्याग कर ।
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देहादि से ममत्व त्याग परिग्रह छोडकर कायोत्सर्ग मे स्थित हुए बाहुवली मानकषाय से कलुषितचित्त हुए कितने ही काल तक ( एक वर्ष तक ) आतापन योग मे रहे तो उससे क्या हुआ ? कुछ भी सिद्धि न हुई ।
भावेण होइ नग्गो बाहिरलिगेण किं च णग्गेण । कम्मपयडीण जियरं णासह भावेण दव्वेण ॥ ५४ ॥
"भावपाहुड़"
अर्थ - भाव से भी नग्न होना चाहिये, केवल बाहरी नग्नवेष से हो क्या होता है ? जो द्रव्यलिंग के साथ-साथ
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